Thursday, November 22, 2012

आखिर क्यूँ देखू मैं 'ओह माए गॉड' ?

आज 927 दिन के बाद एक बार फिर आपसे बात करके बहुत अच्छा महसूस हो रहा है। पता नहीं क्यूँ मगर मैं इतने दिन तक कुछ लिख ही नहीं पाया। जब-जब कुछ लिखने का सोचा कीबोर्ड तक आते-आते विचार गायब हो जाता था। इस बार मैंने बाबा से प्रार्थना की है की मुझे कुछ लिखने की इजाज़त दे दो। चलिए अब मुद्दे की बात करते हैं ...

जब से ओह माए गॉड फिल्म आई है मुझे हर तबके और हर तरह का काम करने वाले दोस्तों ने इसे देखने की सलाह दी थी। यहाँ तक की सुना है कुछ-कुछ संतो ने भी इस फिल्म की बहुत वाह-वाही की है। इतना सब सुनने के बाद आखिर मैंने ये फिल्म देख ली और ख़ास बात ये है की इस फिल्म ने मुझे मेरे बहुत पुराने सवाल का जवाब भी दे दिया की साईबाबा को हर धर्म, हर तबके, हर सम्प्रदाय के मानने वाले संत मानते हैं और साईबाबा की यथाधार्मानुसार पूजा भी करते हैं तो इसके पीछे आखिर क्या कारन है। इस फिल्म के अंत में एक बहुत मजेदार डायलोग है की "दीस आर नोट गॉड लोविंग पीपल, दीस आर गॉड फीयारिंग पीपल" अर्थात ये भगवान् से प्रेम करने वाले नहीं, भगवन से डरने वाले लोग हैं। सचमुच हम सब भगवान् से डरने वाले लोग हैं। हमारे पारंपरिक धर्म को मानने वाले हमें हमेशा ये बताते हैं की अगर हमने ऐसा नहीं किया तो हमारे साथ क्या बुरा हो सकता है। एक तरफ तो श्रीमद भगवद गीता कहती है की आत्मा को कोई जला सन्हीं सकता, कोई काट नहीं सकता, कोई गीला नहीं कर सकता और कोई सुखा नहीं सकता तो साथ ही नरक की अवधारणा भी है की अगर बुरा करोगे तो नरक में हमें कटा जायेगा तला जायेगा जलाया जाएगा आदि। बस यही बातें हमें या तो बेबस बना देती हैं या आतंकवादी।

इसी से अचानक विचार आया की शिर्डी के साईबाबा ने तो कभी-भी नहीं कहा की उनकी कोई बात नहीं मानोगे तो वो हमारा कुछ बुरा कर देंगे। वो तो हमेशा कहते हैं की मेरी द्वारकामाई से कोई खाली हाथ नहीं जाता बस उसको अपने ईष्ट पर श्रद्धा रखकर सब्र से काम लेना है। श्रीसाईं की शक्तिया असीमित हैं, अपने भक्त को देने के बाद वो उस भक्त को उस दान के काबिल भी बना देते हैं।

कोई बाबा से बच्चा मांग लेता है , कोई दौलत कोई शोहरत और बाबा सबको सबकुछ देते हैं बिना ये कहे की अगर ऐसा करोगे तो दूंगा और ऐसा करोगे तो ले लूँगा। उस्ताद हमसर हयात एक शेर कहते हैं "ऊपरवाला तो हमको देता है तो लेता भी है लेकिन / मेरे साईं जी जो देते हैं वो वापस नहीं लेते". बाबा के इसी विशेष गुण के कारण साईं भक्त बाबा से प्यार करते हैं बाबा से डरते नहीं हैं। इसलिए हम बड़े फख्र और दावे से कह सकते हैं की "साईं देवोटीज़ आर साईं लोविंग पीपल नोट साईं फीअरिंग पीपल" अर्थात साईं भक्त साईं को प्रेम करनेवाले लोग हैं साईं से डरने वाले लोग नहीं हैं।

फिर जल्दी मिलेंगे ऐसी बाबा से प्रार्थना है।  -जय साईराम

Monday, May 10, 2010

गृहस्थ में कैसे रहे ?

"घर में सब सुखी हैं, पुत्र बुद्धिमान हैं, पत्नी मधुरभाषिणी है, अच्छे मित्र हैं, अपनी पत्नी का ही संग है, नौकर आज्ञापरायण हैं. प्रतिदिन अतिथि-सत्कार एवं भगवान् शंकर का पूजन होता है. पवित्र एवं सुन्दर खान-पान है और नित्य ही संतो का संग किया जाता है-ऐसा जो गृहस्थाश्रम है, वह धन्य है."
-साभार 'गृहस्थ में कैसे रहे ?'


गृहस्थ पर पांच ऋण होते हैं. पितृऋण, देवऋण, ऋषीऋण, भूतऋण और मनुष्यऋण ये क्या हैं ?

पितृऋण : अपने पूर्वजो और पितरो के लिए दिया गया दान और किया गया श्राद्धकर्म पितरो के आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए आवश्यक होता है. अपने पितरो को ये प्रथा जारी रखने के लिए गृहस्थपुरुष को पुत्र उत्पन्न करना होता है. पुत्र जन्म के बिना गृहस्थ मनुष्य पितृऋण के मुक्त नहीं होता.

देवऋण : वर्षा होती है, धाम तपता है, हवा चलती है, पृथ्वी सबको धारण करती है, रात्रि में चन्द्रमा और दिन में सूर्य प्रकाश करता है, जिससे सबका जीवन निर्वाह चलता है - यह सब हमपर देवऋण है. हवन, यज्ञ करने से देवताओं की संतुष्टि होती है और गृहस्थ देवऋण से मुक्त हो जाते हैं.

ऋषीऋण : ऋषी-मुनियों ने, संत-महात्माओं ने जो ग्रन्थ बनाए हैं, स्मृतिया बनायीं हैं, उनसे हमें प्रकाश मिलता है, शिक्षा मिलती है, कर्तव्य-अकर्तव्य का ज्ञान होता है; अतः उनका हमपर ऋण है. उनके ग्रंथो को पढने से, स्वाध्याय करने से, पठन-पाठन करने से, संध्या-गायत्री करने से हम ऋषीऋण से मुक्त हो जाते हैं.

भूतऋण : गाय-भैंस, भेड़-बक़री, ऊँट-घोडा आदि जितने प्राणी हैं, उनसे हम अपना काम चलाते हैं, अपना जीवन निर्वाह करते हैं. वृक्ष-लता आदि से फल-फूल, पत्ती-लकड़ी आदि लेते हैं. ये हमपर दूसरो का, प्राणियों का ऋण है. पशु-पक्षियों को घास-दाना, अन्न आदि देने से, जल पिलाने से, वृक्ष-लता आदि को खाद और जल देने से हम इस भूतऋण से मुक्त हो जाते हैं.

मनुष्यऋण : बिना किसी दूसरे मनुष्य की सहायता लिए हमारा जीवन निर्वाह नहीं होता. हम दूसरो के बनाये हुए रास्ते पर चलते हैं, दूसरो के बनाय हुए स्रोतों से पानी काम में लेते हैं, दूसरो के लगाय हुए पेड़-पौधो को काम में लेते हैं, दूसरो द्वारा उत्पन्न किये हुए अन्न आदि खाद्य पदार्थो को काम में लेते हैं-यह उनका हमपर ऋण है. दूसरो की सुख-सुविधा के लिए प्याऊ लगवाने, बगीचा लगाने, रास्ता बनवाने, धर्मशाला बनवाने, भंडार खिलाने आदि से हम मनुष्यऋण से मुक्त हो सकते हैं.

स्मरण रहे, समस्त संसार को त्याग कर संन्यास और वानप्रस्थ गृहण करने वालो और भगवान् के पूर्णत: शरणागत होने वाले को कोई भी ऋण नहीं देना होता. वह सर्वथा मुक्त हो जाता है.

Tuesday, April 20, 2010

साईं की ज्योत साईं में विलीन हो गयी

'मेरे लिए भक्ति एक बहुत ही व्यक्तिगत विषय है.' स्वर्गीय श्री विनय भटनागर जी के ये शब्द सदा मेरे साथ रहेंगे. रविवार, 18 अप्रेल को श्री विनय भटनागर जी की जीवन ज्योत श्रीसाईं में विलीन हो गयी. श्रीसाईं की ज्योत साईं में समा गयी. पिछले करीब डेढ़ साल में मेरी भटनागर जी के साथ बाबा के विषय में बहुत बातें हुयीं. कितने आश्चर्य की बात है की सिर्फ 100 कदमो की दूरी पर हमारे घर थे मगर मेरी पहली मुलाक़ात हमारे ऑफिस में हुयी.

साल 2008 की गुरु पूर्णिमा का निमंत्रण लेकर मैं अपने ऑफिस के एक मित्र को बुलावा देने गया था. उन्होंने पूछा 'आप तो विनय जी जानते होगे ?' आज भी हैरानी होती है की मैंने उस वक़्त 'नहीं, कभी भेंट नहीं हुयी' कहा था. पिछले लगभग चार सालो से शालीमार गार्डन में हर रामनवमी पर निकलने वाली भव्य पालकी यात्रा में रथ पर बाबा के भक्तो को प्रसाद बांटने वाले और योगाश्रम शिव सूर्य साईं आदि मंदिर (शालीमार गार्डन पुलीस चौकी के पीछे) से जुड़े भटनागर जी को वहां बहुत कम लोग जानते थे. यहीं भटनागर जी की ये बात सही हो जाती है की 'भक्ति एक बहुत ही व्यक्तिगत' विषय है. शिर्डी जाने पर काकड़ आरती के समय समाधी मंदिर परिसर की परिक्रमा करना हो या साईं मंदिर में सुबह परिक्रमा करना हो, भटनागर जी की आराधना पूरी तरह व्यक्तिगत होती थी. मुझे याद अभी करीब दो महीने पहले वो मुझसे मिलने मेरी सीट पर आ रहे थे और 'ॐ साईं नमो नमः, श्रीसाईं नमो नमः, जय जय साईं नमो नमः, सतगुरु साईं नमो नमः' का जाप बुदबुदा रहे थे. मैं उनके पीछे ही था मगर मैंने उनकी आराधना में खलल डालना ठीक नहीं समझा. इसलिए जब हम मेरी सीट तक पहुँच गए तब मैंने उन्हें 'जय साईंराम सर' से संबोधित किया.

भटनागर जी ने बताया था की कैसे बाबा उनके घर आये और वो बाबा से जुड़े. 1977 की गर्मियों की बात है खुद भटनागर जी तो ऑफिस में थे मगर उनके पीछे उनके घर एक बुज़ुर्ग फकीर आया और उस फकीर ने भटनागर जी की धर्मपत्नी से कुछ मीठा लाने को कहा. घर में मीठा ना होने की स्थिति में उस फकीर ने कहा की मुझे शक्कर दे दो. शक्कर खाने के बाद फकीर ने श्रीमती भटनागर से पचास रूपए मांगे और बताया की वो लोधी रोड में रहते हैं. जब भटनागर जी घर पहुंचे तो उन्हें भी ये घटना बहुत अजीब लगी. उन्होंने विचार किया की हमे लोधी रोड पर उस फकीर की बतायी जगह जाना चाहिए और देखना चाहिए की वो कौन था. जब श्रीमति भटनागर और विनय जी वहां पहुंचे तो ये देखकर हैरान रह गए की वहां तो श्रीसाईं बाबा का मंदिर है. श्रीमती भटनागर ने भी बाबा को देखते ही पहचान लिया की यही थे जो हमारे घर आये थे. उसके बाद भटनागर जी बाबा के अनन्य भक्त बन गए. श्री भटनागर ने बताया था की उन्होंने शिर्डी में बाबा को खुद स्नान करवाया है और उनके दोनों बच्चे बाबा की पावन गोद में बैठ चुके हैं.

श्री विनय भटनागर की आस्था और विश्वास पूरी तरह से बाबा में था और रविवार वैशाख शुक्ल चतुर्थी संवत 2067 (18 अप्रैल 2010 ) को श्री विनय भटनागर जी की जीवन ज्योत श्रीसाईं की पावन ज्योत में विलीन हो गयी. मेरी श्रीसाईं से प्रार्थना है की श्रीविनय भटनागर जी को अपने चरणों में सदा-सदा के लिए विश्राम दें. जय साईराम...

Thursday, March 18, 2010

बाबा और उनका ब्रह्मज्ञानी

श्रीसाईं की लीला पुस्तिका श्रीसाईं सत्चरित्र में एक ही भक्त ऐसा है जो बाबा से भौतिक इच्छाओं की पूर्ती करने को नहीं कहता. वो बाबा से इस मिथ्या जगत के किसी लोभ को नहीं मांगता बल्कि वो बाबा से ब्रह्मज्ञान मांगता है. जब मैंने ये लीला पढ़ी तो मुझे भी वही अनुभव हुआ जो आप सबको हुआ है. वास्तव में लीला पुरषोत्तम श्रीसाईं का आशय भी यही था की इस लीला से सबको मोह्त्याग करने की प्रेरणा मिले. आइये सबसे पहले हम इस लीला को श्रीहेमाडपंत जी के द्वारा स्मरण करते हैं.

एक धनी व्यक्ति ( दुर्भाग्य से मूल ग्रंथ में उसका नाम और परिचय नहीं दिया गया है ) अपने जीवन में सब प्रकार से संपन्न था। उसके पास अतुल सम्पत्ति, घोड़े, भूमि और अनेक दास और दासियाँ थीं। जब बाबा की कीत्र्ति उसके कानों तक पहुँची तो उसने अपने एक मित्र से कहा कि "मेरे लिए अब किसी वस्तु की अभिलाषा शेष नहीं रह गई है, इसलिए अब शिरडी जाकर बाबा से ब्राहृज्ञान प्राप्त करना चाहिए और यदि किसी प्रकार उसकी प्राप्ति हो गई तो फिर मुझसे अधिक सुखी और कौन हो सकता है?'' उनके मित्र ने उन्हें समझाया कि "ब्राहृज्ञान की प्राप्ति सहज नहीं है, विशेषकर तुम जैसे मोहग्रस्त को, जो सदैव स्त्री, सन्तान और द्रव्योपार्जन में ही फँसा रहता है। तुम्हारी ब्राहृज्ञान की आकांक्षा की पूत्र्ति कौन करेगा, जो भूलकर भी कभी एक फूटी कौड़ी का भी दान नहीं देता ?''
अपने मित्र के परामर्श की उपेक्षा कर वे आने-जाने के लिए एक ताँगा लेकर शिरडी आये और सीधे मस्जिद पहुँचे। साईबाबा के दर्शन कर उनके चरणों पर गिरे और प्रार्थना की कि "आप यहाँ आनेवाले समस्त लोगों को अल्प समय में ही ब्राहृ-दर्शन करा देते हैं, केवल यही सुनकर मैं बहुत दूर से इतना मार्ग चलकर आया हूँ । मैं इस यात्रा से अधिक थक गया हूँ। यदि कहीं मुझे ब्राहृज्ञान की प्राप्ति हो जाए तो मैं यह कष्ट उठाना अधिक सफल और सार्थक समझूँगा।''
बाबा बोले " मेरे प्रिय मित्र । इतने अधीर न होओ। मैं तुम्हें शीघ्र ही ब्राहृ का दर्शन करा दूँगा। मेरे सब व्यवहार तो नगद ही हैं और मैं उधार कभी नहीं करता। इसी कारण अनेक लोग धन, स्वास्थ्य, शक्ति, मान, पद आरोग्य तथा अन्य पदार्थो की इच्छापूत्र्ति के हेतु मेरे समीप आते हैं। ऐसा तो कोई विरला ही आता है, जो ब्राहृज्ञान का पिपासु हो । भौतिक पदार्थों की अभिलाषा से यहाँ आने वाले लोगों का कोई अभाव नहीं, परन्तु आध्यात्मिक जिज्ञासुओं का आगमन बहुत ही दुर्लभ है। मैं सोचता हूँ कि यह क्षण मेरे लिए बहुत ही धन्य तथा शुभ है, जब आप जैसे महानुभाव यहाँ पधारकर मुझे ब्राहृज्ञान देने के लिए जोर दे रहे हैं। मैं सहर्ष आपको ब्राहृ-दर्शन करा दूँगा।''
यह कहकर बाबा ने उन्हें ब्राहृ-दर्शन कराने के हेतु अपने पास बिठा लिया और इधर-उधर की चर्चाओं में लगा दिया, जिससे कुछ समय के लिए वे अपना प्रश्न भूल गए। उन्होंने एक बालक को बुलाकर नंदू मारवाड़ी के यहाँ से पाँच रुपए उधार लाने को भेजा । लड़के ने वापस आकर बतलाया कि नन्दू का तो कोई पता नहीं है और उसके घर पर ताला पड़ा है। फिर बाबा ने उसे दूसरे व्यापरी के यहाँ भेजा। इस बार भी लड़का रुपए लाने में असफल ही रहा। इस प्रयोग को दो-तीन बार दुहराने पर भी उसका परिणाम पूर्ववत् ही निकला।
हमें ज्ञात ही है कि बाबा स्वयं सगुण ब्राहृ के अवतार थे। यहाँ प्रश्न हो सकता है कि इस पाँच रुपये जैसी तुच्छ राशि की यथार्थ में उन्हें आवश्यकता ही क्या थी? और उस ऋण को प्राप्त करने के लिए इतना कठिन परिश्रम क्यों किया गया? उन्हें तो इसकी बिलकुल आवश्यकता ही न थी। वे तो पूर्ण रीति से जानते होंगे कि नन्दूजी घर पर नहीं है। यह नाटक तो उन्होंने केवल अन्वेषक के परीक्षार्थ ही रचा था। ब्राहृजिज्ञासु महाशय जी के पास नोटों की अनेक गड्डियाँ थीं और यदि वे सचमुच ही ब्राहृज्ञान के अकांक्षी होते तो इतने समय तक शान्त न बैठते। जब बाबा व्यग्रतापूर्वक पाँच रुपये उधार लाने के लिऐ बालक को यहाँ-वहाँ दौड़ा रहे थे तो वे दर्शन बने ही न बैठे रहते। वे जानते थे कि बाबा अपने वचन पूर्ण करके ऋण अवश्य चुकायेंगे। यद्यपि बाबा द्वारा इच्छित राशि बहुत ही अल्प थी, फिर भी वह स्वयं संकल्प करने में असमर्थ ही रहा और पाँच रुपया उधार देने तक का साहस न कर सका। पाठक थोड़ा विचार करें कि ऐसा व्यक्ति बाबा से ब्राहृज्ञान, जो विश्व की अति श्रेष्ठ वस्तु है, उसकी प्राप्ति के लिए आया है। यदि बाबा से सचमुच प्रेम करने वाला अन्य कोई व्यक्ति होता तो वह केवल दर्शक न बनकर तुरन्त ही पाँच रुपये दे देता। परन्तु इन महाशय की दशा तो बिलकुल ही विपरीत थी। उन्होंने न रुपये दिए और न शान्त ही बैठे, वरन् वापस जल्द लौटने की तैयारी करने लगे और अधीर होकर बाबा से बोले कि " अरे बाबा! कृपया मुझे शीघ्र ब्राहृज्ञान दो। बाबा ने उत्तर दिया कि " मेरे प्यारे मित्र ! क्या इस नाटक से तुम्हारी समझ में कुछ नहीं आया? मैं तुम्हें ब्राहृदर्शन कराने का ही तो प्रयन्त कर रहा था ! संक्षेप में तात्पर्य यह है कि ब्राहृ का दर्शन करने के लिए पाँच वस्तुओं का त्याग करना पड़ता है:- (1) पाँच प्राण (2) पाँच इन्द्रियाँ (3) मन (4) बुद्धि तथा (5) अहंकार। यह हुआ ब्राहृज्ञान। आत्मानुभूति का मार्ग भी उसी प्रकार है, जिस प्रकार तलवार की धार पर चलना ।''


श्रीसाईं की कथा अनंत है, साईंनाम अनमोल जनम सफल हो जाएगा, साईं-साईं बोल बाबा की लीलाए जितनी मनमोहक हैं उनका रहस्य और तात्पर्य उससे भी अधिक गूढ़ है. वास्तव में बाबा की इस लीला के पीछे भक्तो के मोहग्रस्त मन को माया के पाश से मुक्त कराना और वास्तविक मुमुक्षुओ को सही मार्ग दिखाना था. अब हम उन सज्जन की बात करते हैं जो ब्रह्मज्ञान के लिए व्यग्र थे. मेरे अबोध मन में जो जिज्ञासा या विचार हैं वो मैं यहाँ आप सभी साईं भक्तो के चरणों में अर्पित कर रहा हूँ. यदि मेरे विचारों से आप सहमत नहीं तो मुझे मार्गदर्शन दीजिये और यदि सहमत हैं तो आशीर्वाद.

वास्तव में बाबा की इन सज्जन पर बहुत कृपा रही होगी जो बाबा ने अपनी एक विलक्षण लीला में उन्हें सांकेतिक रूप से प्रयोग किया. कथा के आरम्भ में ही लिखा गया है की 'दुभाग्यवश मूल ग्रन्थ में इन सज्जन का नाम नहीं है'. ये दुर्भाग्य नहीं बाबा का इन सज्जन को आशीर्वाद है ऐसा मुझे लगता है. श्रीसाईं के पास ब्रह्मज्ञान के लिए एक ही व्यक्ति आया और बाबा ने उसे भी ब्रह्मज्ञान देने के स्थान पर उसका उपहास किया ऐसा सोचना भी मूर्खता जैसी ही स्थिति है. मेरा साईं जो सबके लिए माँ और बाप के सामान है वो ब्रह्मज्ञान मांगने वाले का उपहास नहीं कर सकता.

श्रीसाईं सत्चरित्र इस कथन को सत्य सिद्ध करती है की आदरणीय बूटी साहेब, खापर्डे साहब, शमा गुरुजी, नाना साहेब चांदोरकर या स्वयं दासगणु महाराज जैसे सतत साईं अनुयायियो ने भी बाबा से कभी ब्रह्मज्ञान नहीं माँगा. मेरे विचार में इन सज्जन का नाम ग्रन्थ में इसलिए नहीं है क्यूंकि इनका नाम लिखने से इन सज्जन के व्यापार या परिवार से जुड़े सभी व्यक्तियों के लिए ऐसी ही धारणा बन जाती तो बाबा की अन्तःप्रेरणा से मूल ग्रन्थ में इन महाशय का नाम नहीं है.

एक बात ये की जिस साईं के सामने प्रबुद्ध और धनाढ्य व्यक्तियो के विचार और व्यवहार भी शांत हो जाते थे उनके सामने ये महाशय किस प्रकार अपने धन का प्रदर्शन कर सकते थे ? बाबा स्वयं समर्थ थे और यदि वे इन महाशय से दक्षिणा चाहते तो स्वयं साधिकार मांग सकते थे. बाबा ने किसी से भी दक्षिणा इसलिए नहीं ली क्यूंकि उसके पास बहुत धन है. बाबा ने दक्षिणा इसलिए मांगी क्यूंकि वो सबकुछ उनका ही तो है. फिर इन महाशय के स्वयं धन अर्पित करने की प्रतीक्षा क्यूँ ? विचार कीजिये की यदि आप इन सज्जन के स्थान पर हैं और बाबा से कहते हैं की "बाबा! मुझसे पांच रूपए ले लो" तो क्या ऐसा नहीं हो सकता था की बाबा उनसे कहते "तू मुझे धन देगा ? तेरे पास है इतना की तू साईं को दे सके ?" ऐसे में स्थिति और भी खराब होती.

दूसरी बात धनवान व्यक्ति वास्तव में सहज नहीं होते. धन की माया किसी को भी असहज और अनावश्यक रूप से विचारशील बना देती है. इन सज्जन को तो शायद ये लगा ही नहीं होगा की बाबा उस बालक को इसलिए दौड़ा रहे हैं की इन सज्जन को शिक्षा मिले वो तो यही विचार कर रहे होंगे की बाबा जल्द से जल्द उन्हें ब्रह्मज्ञान दें. इन सज्जन के लिए ब्रह्मज्ञान पाना किसी अन्य वस्तु को पाने जैसा ही रहा होगा. सांसारिक व्यापार को चलाने वाला आध्यात्मिक व्यवहार को नहीं समझता होगा ऐसा हम समझ सकते हैं.

आखिरी बात ये की शायद ये महाशय ब्रह्मज्ञान और गुरुमंत्र में भेद ही ना कर पाए हों. गुरुमंत्र तो गुरु एक साधारण और अत्यंत आत्मीय परिस्थिति में कभी भी दे सकता है. कैसे श्रीमती कानिटकर जो बहुत छोटी उम्र में बाबा के दर्शन करने अपने परिवार के साथ गयी थी. बाबा ने उनके पैरो पर हाथ फेरकर कहा था 'जा राममय हो जा'. कहते हैं 80 वर्ष की अवस्था में भी वो अपने पैरो से भलीभांति चल सकती थी. जिस प्रकार सहजता से श्रीमति रमाबाई कानिटकर को 'रामनाम' जप का गुरुमंत्र मिला था उसी प्रकार राधाबाई देशमुख को बाबा ने कोई गुरुमन्त्र नहीं दिया. इसी प्रकार शायद ये सज्जन गुरुमंत्र की अभिलाषा में आये होंगे और श्रीसाईं की लीलावश 'ब्रह्मज्ञान' मांग बैठे.

इस प्रकार मैं ह्रदय से श्रीसाईं और उनके इस महान भक्त के चरणों में नतमस्तक हूँ जिनकी अहैतुकी कृपा से हमें ब्रह्मज्ञान जैसा विलक्षण उपदेश प्राप्त हुआ. मेरी श्रीसाईं से प्रार्थना है की हमे भी अपनी लीला का पात्र बनाए रखें. जय साईंराम

Saturday, January 16, 2010

बाबा का न्यायालय: चिंचनिकर चावडी

"मशीद माई से कोई खाली हाथ नहीं लौटता" ये वचन जितने तब सत्य थे उतने बल्कि उससे कहीं ज्यादा आज सार्थक हैं। "मेरी शरण आ खाली जाए, हो कोई तो मुझे बताये" बाबा के साभी वचन आज भी बाबा की संतानों में जीवन के प्रति जोश पैदा कर रहे हैं और एक सतत आश्वासन हैं की बाबा से कुछ भी मांगो वो ज़रूर देते हैं.
लगभग 36,525 दिन पहले बाबा ने द्वारकामाई के अलावा एक और जगह को अपना ठिकाना बनाया था। बाबा ने फैसला किया किया की वो एक दिन छोड़कर पास ही में एक टूटी सी ईमारत में रात को विश्राम करेंगे. द्वारकामाई में तात्या और म्हाल्सपतिजी बाबा के साथ रात को चिंतन, मनन, ध्यान और थोडा सा विश्राम करते थे मगर चावडी में किसी को भी बाबा के साथ रुकने की आज्ञा नहीं थी. बाबा चावडी में ध्यान भी करते और अपने भक्तो के लिए मालिक से प्रार्थना भी करते. चावडी में बाबा को छोड़ने के बाद शिर्डी के किसी भी व्यक्ति ने बाबा की आवाज़ नहीं सुनी. बाबा चावडी में केवल ध्यान ही किया करते थे? बाबा का चावडी में सोने का क्या कारण था? चावडी में महिलाओं का प्रवेश वर्जित क्यूँ था? वैसे तो बाबा की लीला बाबा ही जानें मगर बाबा की ही कृपा और करुणा से हम बाबा की इस मनमोहक लीला को समझने का प्रयास करते हैं.
बाबा हर दुसरे दिन चावडी में रात बिताते थे. बाबा की दया से जहाँ तक मेरा विचार है वास्तव में चावडी बाबा का न्यायालय थी. द्वारकामाई में बाबा हर उस आने वाले की इच्छा पूरी करते थे जो उनसे कुछ मांगता था, तो बाबा ने ऐसा क्यूँ कहा की "अगर सभी बौर बन जाएँ तो फलो की गिनती करना ही असंभव हो जाएगा." यानि बाबा सबको देने का सामर्थ्य रखते हुए भी सुपात्र का विचार ज़रूर करते थे. द्वारकामाई में जब भक्तो को दे देते थे तब चावडी में बैठकर उस भक्त को अपनी दी हुयी भेंट के लिए सुपात्र बनाने का कार्य भी करते थे. एक वर्णन आता है जहाँ बाबा ने अपने एक भक्त की शराब की बुरी आदत छुडवाने के लिए उसे बहुत मारा था, वो मारना स्वप्न में ज़रूर था मगर उसका असर वास्तविक था.आज भी अगर हम बाबा से कुछ मांगते हैं तो हो सकता है हम अपनी मांगी हुयी चीज़ के लिए सुपात्र ना हों, लेकिन बाबा आज भी चावडी में बैठकर हमे, हमारी मांग के लिए हमे सुपात्र बनाते हैं. बाबा ने कहा है "श्रद्धा रखो और सब्र से काम लो". अगर बाबा ने हमे देना ही है तो सब्र किस बात का? वास्तव में बाबा ने सब्र करने को इसीलिए कहा है की वो चाहते हैं की हम बौर की तरह पूरी श्रद्धा और सब्र से इंतज़ार करें जिससे हमे हमारे कर्मो का स्वादिष्ट और सुगन्धित फल मिले. चावडी में बैठकर बाबा का न्यायालय पूरा न्याय करता है अगर दोष हम में है तो सजा भी हमे ही भुगतनी होगी और बाबा ने तो साफ़ बताया है की कई जन्मो में सजा पूरी करने से अच्छा है की हम इसी जन्म में बाबा की निगरानी में अपनी सजा पूरी करें और फिर स्वयं बाबा के चरणों में विलीन हो जाएँ.मेरे विचार से आप कितना इत्तेफाक रखते हैं ये तो मैं नहीं जानता मगर मुझे यकीन है आज भी चावडी में बाबा से अपने किये तमाम गुनाहों की माफ़ी मांग लेने से बाबा हमे मालिक से इन्साफ दिलाते हैं और हमे गलती करने से रोक भी लेते हैं. बाबा की चावडी में बाबा का दरबार भले ही ना लगता हो मगर फैसला तो बाबा चावडी में बैठकर ही सुनाते हैं. तो हम ये मान सकते हैं की मशीदमाई हमें कभी निराश नहीं करती. मशीदमाई का साईं हमें देता है मगर चावडी में बैठकर हमारी समीक्षा और समाधान करने के बाद देता है. श्रीसाईं के इस न्यायालय को फैसले देते सौ साल दिसंबर 2009 में पूरे हो जायेंगे और शायद ये सृष्टि का एकमात्र न्यायालय होगा जिसके फैसले कभी गलत नहीं होते. बाबा के इस न्यायालय को इस लौकिक जगत के सौ साल पूरे होने पर आप सभी को हार्दिक शुभकामनायें. जय साईंराम.

Thursday, January 14, 2010

आइये जानें कौन थे हेमाद्रीपन्त?

बाबा ने गोविन्द रघुनाथ दाभोलकर को अन्तः प्रेरणा देकर अपना पावन जीवन चरित लिखवाया जिसे आज साईं समाज में श्रीसाईं सत्चरित्र के नाम से पूजा और माना जाता है. बाबा की लीला में छिपे अर्थ और व्यापकता को बाबा के अतिरिक्त कोई नहीं जानता. बाबा ने दाभोलकर जी को हेमाडपंत कहा, आइये आज हम उन्ही हेमाद्रिपंत की चर्चा करते हैं जो महाराष्ट्र के एक प्रसिद्द विद्वान हुए हैं।

तेरहवी शताब्दी में कर्नाटक के दक्षिण कन्नड़ के एक छोटे से ग्राम हेमाद्री के स्मार्त ऋग्वेदी, वत्स गोत्री, शाकालशक्शी कर्हाड़े ब्राह्मण परिवार में जन्मे हेमाद्रिपंत को उनके पिता कामदेओ बहुत छोटी उम्र में महाराष्ट्र ले आये थे.

दक्षिणपश्चिम भारतवर्ष के यादव शासन काल में प्रधानमन्त्री के महत्त्वपूर्ण पद पर रहते हुए हेमाद्रिपंत स्वयं में एक कुशल प्रशासक, वास्तुकार, कवि और आध्यात्म्विद रहे हैं. हेमाद्रिपंत के प्रधानमंत्रीत्व में यादवकुल का सूर्य अपने चरम पर था और इनके बाद पठान बादशाह अलाउद्दीन खिलजी ने दिल्ली और भारत पर कब्ज़ा कर लिया.

हेमाद्रिपंत ने बहुत-सी धार्मिक पुस्तकें लिखीं जिनमे चतुर्वर्ग चिंतामणि है जिसमे हज़ारों व्रतों और उनके करने के विधान का वर्णन है. चिकित्सा के सम्बन्ध में इन्होने आयुर्वेद रहस्यं पुस्तक लिखी जिसने हजारो बीमारियो और उनके निदान के बारे में लिखा गया है।

इन्होने एक इतिहासिक पुस्तक भी लिखी जिसका नाम हेमाद्पंती बखर है. हेमाद्रिपंत ने प्रशासन और राजकीय कार्यो में एकरूपता लाने के लिए एक पुस्तक भी लिखी जिसमे राज-काज के दैनिंदिन कार्यो की प्रक्रिया को विस्तार से निश्चित किया गया है।

हेमाद्रिपंत ने मोदी लिपि को सरकारी पत्रव्यवहार की भाषा बनाया. गोंदेश्वर मंदिर, तुलजा भवानी और अनुधा नागनाथ ज्योतिर्लिंग मंदिर और रत्नागढ़ के अमृतेश्वर मंदिर को हेमदपंथी वास्तुकारिता से बनाया गया है जिसका सृजन हेमाद्र्पंत ने किया था

हेमाद्रिपंत ने भारत में बाजरे के पौधे, जिसे कन्नड़ में सज्जे, तमिल में कम्बू, तेलुगु में सज्जालू, मराठी में बाजरी और उर्दू, पंजाबी या हिंदी में बाजरा कहा जाता है, को बहुत प्रोत्साहन दिया. महाराष्ट्र में महालक्ष्मी के पूजन को प्रोत्साहित और वैभवशाली बनाने में भी हेमाद्रिपंत का बहुत योगदान है.

विकिपेडिया नाम की वेबसाइट से प्राप्त इस जानकारी के आधार पर हम समझ सकते हैं की श्रीसाईं का ज्ञान और व्यापकता कितनी विस्तृत थी की श्री गोविन्द रघुनाथ दाभोलकर जी को बाबा ने तेरहवी सदी के इस महान विद्वान के नाम से सुशोभित किया. धन्य हैं श्रीसाईं.

Saturday, August 29, 2009

ये गर्व भरा मस्तक मेरा...

जब मैंने ये भजन सुना बहुत अच्छा लगा. लगा मेरे अन्दर का सारा अंहकार नष्ट हो रहा है. ये गर्व भरा मस्तक मेरा, सचमुच हर कोई गर्व कर रहा है. किसी को धन का नशा है, किसी को मान का नशा, किसी को ताक़त का नशा है और किसी को ज्ञान का नशा. गर्व हर किसी को है और उस बात पर है जिसपर नहीं होना चाहिए. कवि ने बहुत सुन्दर अंतःप्रेरणा से लिखा है की हे प्रभु! ये गर्व भरा मस्तक अपने चरणों की धुल तक झुकने दे क्यूंकि अगर तूने इस मस्तक को अपने चरणों में कुबूल कर लिया तो मेरे आस्तित्व की सार्थकता सिद्ध होगी वर्ना तो अभी कई जन्मो तक यहाँ रगड़ना पड़ेगा. हे प्रभु! इस अंहकार और विकार से भरे हुए मन को अब बस एक ही काम करने की आज्ञा दे, बस आर्शीवाद दे की ये मन निज नाम अर्थात तेरे नाम की माला जपता रहे. ये गर्व भरा मस्तक मेरा, प्रभु चरण धूल तक झुकने दे / अंहकार विकार भरे मन को, निज नाम की माला जपने दे.

हे मालिक! मेरे मन में बहुत मैल है. इस दुनिया के विकारों और विचारों ने मेरे मन में बहुत मैल जमा कर दिया है. मेरे मन पर तेरी छाप तो है, मेरे मन के दर्पण में तो सिर्फ तेरा ही अक्स दीखता है मगर इस मैल की वजह से सब छुप गया है. अब अगर इस मैल को धो डालू तो ये जीवन अपने आप तेरे चरणों में अर्पित हो जाएगा. मालिक कुछ ऐसा कर की मैं अपने मन के मैल को धो दूं और ये जीवन तेरा कर दूं. हे प्रभु! मैं तुम्हारा प्रेमी हूँ मुझे तुम्हारे नाम से तुम्हारे धाम से और तुम्हारी यादो से बहुत प्यार है. हे प्राणाधार! अब मुझे इतना का झुका की तेरे सामने खडा होकर इतना शर्मिंदा रहू की फिर उठ ही ना सकू. कवि कहता है की मैं मन के मैल को धो ना सका / ये जीवन तेरा हो ना सका / मैं प्रेमी हूँ, इतना ना झुका / गिर भी जो पडू तो उठने दे.

पता नहीं क्यूँ ज्ञानी और महात्मा संतो ने मुझे अपने चंगुल में फंसा लिया. मुझे ज्ञान और शास्त्र की इतनी बातें बताई की मैं ठेठ भाग्यवादी हो गया. सब कुछ मैंने भाग्य के भरोसे छोड़कर अपने सभी सांसारिक और धार्मिक कर्मो का त्याग कर दिया. मैं गफलत की ऐसी नींद में सो गया की मुझे कुछ भी दिखना और समझना बंद हो गया. मुझे तेरे बारे में ज्ञान तो बहुत दिया गया मगर वास्तव में मैं तुझसे दूर हो गया. अब तेरी ही कृपा से मेरी आँखें खुली हैं. अब जो देखता हूँ तो मुझे रोना आ जाता है. मुझे दुःख होता है की मैंने ये क्या अनर्थ कर दिया. हे प्रभु! अब ये जग चाहे तो सोता रहे मगर मुझे और मेरे अंतर्मन को अपने ज्ञान और वैराग्य की ज्योत से जगा दो. कवि बहुत सुन्दरता से कहता है मैं ज्ञान की बातों में खोया / और कर्महीन पड़कर सोया / जब आँख खुली तो मन रोया / जग सोये मुझको जागने दे.

हे कृपानिधान! तूने मुझे बनाया है तो अब मैं चाहे जैसा भी हूँ. दुनिया के बीच रहकर अपने नाम और प्रतिष्ठा के लिए मेरा मोह बहुत है. मैं सबके काम करता हूँ जिस से सब मुझे नाम दें और मेरे जयजयकार करें. हे साईं! अब मैं जैसा भी हूँ खोटा, या खरा इसको मत देख. हे नानक! देख न लेख मेरे माथे पे, मेरे कर्मो पर मत जा (वेख न लेख मत्थे ते मेरे, करमा ते ना जावी), हे प्रभु! अब तो मैं तेरी शरण में आ गया हूँ. तेरी शरण और तेरे चरण तो माँ के प्रेम की तरह निर्दोष हैं साईं, अब तू या तो एक बार कहदे "खाली जा" या फिर अपने प्यार की बरसात मुझे पर होने दे और इस कृपा की वर्षा में मुझे बह जाने दे. कवि ने अंतिम पद में बहुत सुन्दरता से शरणागत होते हुए लिखा है जैसा हूँ मैं, खोटा या खरा / निर्दोष शरण में आ तो गया / इक बार ये कह दे खाली जा / या प्रीत की रीत छलकने दे.

ये गर्व भरा मस्तक मेरा
प्रभु चरण धूल तक झुकने दे
अंहकार विकार भरे मन को
निज नाम की माला जपने दे

मैं मन के मैल को धो ना सका
ये जीवन तेरा हो ना सका
मैं प्रेमी हूँ, इतना ना झुका
गिर भी जो पडू तो उठने दे.
ये गर्व भरा मस्तक मेरा
प्रभु चरण धूल तक झुकने दे

मैं ज्ञान की बातों में खोया
और कर्महीन पड़कर सोया
जब आँख खुली तो मन रोया
जग सोये मुझको जागने दे.
ये गर्व भरा मस्तक मेरा
प्रभु चरण धूल तक झुकने दे

जैसा हूँ मैं, खोटा या खरा
निर्दोष शरण में आ तो गया
इक बार ये कह दे खाली जा
या प्रीत की रीत छलकने दे.
ये गर्व भरा मस्तक मेरा
प्रभु चरण धूल तक झुकने दे