Thursday, March 18, 2010

बाबा और उनका ब्रह्मज्ञानी

श्रीसाईं की लीला पुस्तिका श्रीसाईं सत्चरित्र में एक ही भक्त ऐसा है जो बाबा से भौतिक इच्छाओं की पूर्ती करने को नहीं कहता. वो बाबा से इस मिथ्या जगत के किसी लोभ को नहीं मांगता बल्कि वो बाबा से ब्रह्मज्ञान मांगता है. जब मैंने ये लीला पढ़ी तो मुझे भी वही अनुभव हुआ जो आप सबको हुआ है. वास्तव में लीला पुरषोत्तम श्रीसाईं का आशय भी यही था की इस लीला से सबको मोह्त्याग करने की प्रेरणा मिले. आइये सबसे पहले हम इस लीला को श्रीहेमाडपंत जी के द्वारा स्मरण करते हैं.

एक धनी व्यक्ति ( दुर्भाग्य से मूल ग्रंथ में उसका नाम और परिचय नहीं दिया गया है ) अपने जीवन में सब प्रकार से संपन्न था। उसके पास अतुल सम्पत्ति, घोड़े, भूमि और अनेक दास और दासियाँ थीं। जब बाबा की कीत्र्ति उसके कानों तक पहुँची तो उसने अपने एक मित्र से कहा कि "मेरे लिए अब किसी वस्तु की अभिलाषा शेष नहीं रह गई है, इसलिए अब शिरडी जाकर बाबा से ब्राहृज्ञान प्राप्त करना चाहिए और यदि किसी प्रकार उसकी प्राप्ति हो गई तो फिर मुझसे अधिक सुखी और कौन हो सकता है?'' उनके मित्र ने उन्हें समझाया कि "ब्राहृज्ञान की प्राप्ति सहज नहीं है, विशेषकर तुम जैसे मोहग्रस्त को, जो सदैव स्त्री, सन्तान और द्रव्योपार्जन में ही फँसा रहता है। तुम्हारी ब्राहृज्ञान की आकांक्षा की पूत्र्ति कौन करेगा, जो भूलकर भी कभी एक फूटी कौड़ी का भी दान नहीं देता ?''
अपने मित्र के परामर्श की उपेक्षा कर वे आने-जाने के लिए एक ताँगा लेकर शिरडी आये और सीधे मस्जिद पहुँचे। साईबाबा के दर्शन कर उनके चरणों पर गिरे और प्रार्थना की कि "आप यहाँ आनेवाले समस्त लोगों को अल्प समय में ही ब्राहृ-दर्शन करा देते हैं, केवल यही सुनकर मैं बहुत दूर से इतना मार्ग चलकर आया हूँ । मैं इस यात्रा से अधिक थक गया हूँ। यदि कहीं मुझे ब्राहृज्ञान की प्राप्ति हो जाए तो मैं यह कष्ट उठाना अधिक सफल और सार्थक समझूँगा।''
बाबा बोले " मेरे प्रिय मित्र । इतने अधीर न होओ। मैं तुम्हें शीघ्र ही ब्राहृ का दर्शन करा दूँगा। मेरे सब व्यवहार तो नगद ही हैं और मैं उधार कभी नहीं करता। इसी कारण अनेक लोग धन, स्वास्थ्य, शक्ति, मान, पद आरोग्य तथा अन्य पदार्थो की इच्छापूत्र्ति के हेतु मेरे समीप आते हैं। ऐसा तो कोई विरला ही आता है, जो ब्राहृज्ञान का पिपासु हो । भौतिक पदार्थों की अभिलाषा से यहाँ आने वाले लोगों का कोई अभाव नहीं, परन्तु आध्यात्मिक जिज्ञासुओं का आगमन बहुत ही दुर्लभ है। मैं सोचता हूँ कि यह क्षण मेरे लिए बहुत ही धन्य तथा शुभ है, जब आप जैसे महानुभाव यहाँ पधारकर मुझे ब्राहृज्ञान देने के लिए जोर दे रहे हैं। मैं सहर्ष आपको ब्राहृ-दर्शन करा दूँगा।''
यह कहकर बाबा ने उन्हें ब्राहृ-दर्शन कराने के हेतु अपने पास बिठा लिया और इधर-उधर की चर्चाओं में लगा दिया, जिससे कुछ समय के लिए वे अपना प्रश्न भूल गए। उन्होंने एक बालक को बुलाकर नंदू मारवाड़ी के यहाँ से पाँच रुपए उधार लाने को भेजा । लड़के ने वापस आकर बतलाया कि नन्दू का तो कोई पता नहीं है और उसके घर पर ताला पड़ा है। फिर बाबा ने उसे दूसरे व्यापरी के यहाँ भेजा। इस बार भी लड़का रुपए लाने में असफल ही रहा। इस प्रयोग को दो-तीन बार दुहराने पर भी उसका परिणाम पूर्ववत् ही निकला।
हमें ज्ञात ही है कि बाबा स्वयं सगुण ब्राहृ के अवतार थे। यहाँ प्रश्न हो सकता है कि इस पाँच रुपये जैसी तुच्छ राशि की यथार्थ में उन्हें आवश्यकता ही क्या थी? और उस ऋण को प्राप्त करने के लिए इतना कठिन परिश्रम क्यों किया गया? उन्हें तो इसकी बिलकुल आवश्यकता ही न थी। वे तो पूर्ण रीति से जानते होंगे कि नन्दूजी घर पर नहीं है। यह नाटक तो उन्होंने केवल अन्वेषक के परीक्षार्थ ही रचा था। ब्राहृजिज्ञासु महाशय जी के पास नोटों की अनेक गड्डियाँ थीं और यदि वे सचमुच ही ब्राहृज्ञान के अकांक्षी होते तो इतने समय तक शान्त न बैठते। जब बाबा व्यग्रतापूर्वक पाँच रुपये उधार लाने के लिऐ बालक को यहाँ-वहाँ दौड़ा रहे थे तो वे दर्शन बने ही न बैठे रहते। वे जानते थे कि बाबा अपने वचन पूर्ण करके ऋण अवश्य चुकायेंगे। यद्यपि बाबा द्वारा इच्छित राशि बहुत ही अल्प थी, फिर भी वह स्वयं संकल्प करने में असमर्थ ही रहा और पाँच रुपया उधार देने तक का साहस न कर सका। पाठक थोड़ा विचार करें कि ऐसा व्यक्ति बाबा से ब्राहृज्ञान, जो विश्व की अति श्रेष्ठ वस्तु है, उसकी प्राप्ति के लिए आया है। यदि बाबा से सचमुच प्रेम करने वाला अन्य कोई व्यक्ति होता तो वह केवल दर्शक न बनकर तुरन्त ही पाँच रुपये दे देता। परन्तु इन महाशय की दशा तो बिलकुल ही विपरीत थी। उन्होंने न रुपये दिए और न शान्त ही बैठे, वरन् वापस जल्द लौटने की तैयारी करने लगे और अधीर होकर बाबा से बोले कि " अरे बाबा! कृपया मुझे शीघ्र ब्राहृज्ञान दो। बाबा ने उत्तर दिया कि " मेरे प्यारे मित्र ! क्या इस नाटक से तुम्हारी समझ में कुछ नहीं आया? मैं तुम्हें ब्राहृदर्शन कराने का ही तो प्रयन्त कर रहा था ! संक्षेप में तात्पर्य यह है कि ब्राहृ का दर्शन करने के लिए पाँच वस्तुओं का त्याग करना पड़ता है:- (1) पाँच प्राण (2) पाँच इन्द्रियाँ (3) मन (4) बुद्धि तथा (5) अहंकार। यह हुआ ब्राहृज्ञान। आत्मानुभूति का मार्ग भी उसी प्रकार है, जिस प्रकार तलवार की धार पर चलना ।''


श्रीसाईं की कथा अनंत है, साईंनाम अनमोल जनम सफल हो जाएगा, साईं-साईं बोल बाबा की लीलाए जितनी मनमोहक हैं उनका रहस्य और तात्पर्य उससे भी अधिक गूढ़ है. वास्तव में बाबा की इस लीला के पीछे भक्तो के मोहग्रस्त मन को माया के पाश से मुक्त कराना और वास्तविक मुमुक्षुओ को सही मार्ग दिखाना था. अब हम उन सज्जन की बात करते हैं जो ब्रह्मज्ञान के लिए व्यग्र थे. मेरे अबोध मन में जो जिज्ञासा या विचार हैं वो मैं यहाँ आप सभी साईं भक्तो के चरणों में अर्पित कर रहा हूँ. यदि मेरे विचारों से आप सहमत नहीं तो मुझे मार्गदर्शन दीजिये और यदि सहमत हैं तो आशीर्वाद.

वास्तव में बाबा की इन सज्जन पर बहुत कृपा रही होगी जो बाबा ने अपनी एक विलक्षण लीला में उन्हें सांकेतिक रूप से प्रयोग किया. कथा के आरम्भ में ही लिखा गया है की 'दुभाग्यवश मूल ग्रन्थ में इन सज्जन का नाम नहीं है'. ये दुर्भाग्य नहीं बाबा का इन सज्जन को आशीर्वाद है ऐसा मुझे लगता है. श्रीसाईं के पास ब्रह्मज्ञान के लिए एक ही व्यक्ति आया और बाबा ने उसे भी ब्रह्मज्ञान देने के स्थान पर उसका उपहास किया ऐसा सोचना भी मूर्खता जैसी ही स्थिति है. मेरा साईं जो सबके लिए माँ और बाप के सामान है वो ब्रह्मज्ञान मांगने वाले का उपहास नहीं कर सकता.

श्रीसाईं सत्चरित्र इस कथन को सत्य सिद्ध करती है की आदरणीय बूटी साहेब, खापर्डे साहब, शमा गुरुजी, नाना साहेब चांदोरकर या स्वयं दासगणु महाराज जैसे सतत साईं अनुयायियो ने भी बाबा से कभी ब्रह्मज्ञान नहीं माँगा. मेरे विचार में इन सज्जन का नाम ग्रन्थ में इसलिए नहीं है क्यूंकि इनका नाम लिखने से इन सज्जन के व्यापार या परिवार से जुड़े सभी व्यक्तियों के लिए ऐसी ही धारणा बन जाती तो बाबा की अन्तःप्रेरणा से मूल ग्रन्थ में इन महाशय का नाम नहीं है.

एक बात ये की जिस साईं के सामने प्रबुद्ध और धनाढ्य व्यक्तियो के विचार और व्यवहार भी शांत हो जाते थे उनके सामने ये महाशय किस प्रकार अपने धन का प्रदर्शन कर सकते थे ? बाबा स्वयं समर्थ थे और यदि वे इन महाशय से दक्षिणा चाहते तो स्वयं साधिकार मांग सकते थे. बाबा ने किसी से भी दक्षिणा इसलिए नहीं ली क्यूंकि उसके पास बहुत धन है. बाबा ने दक्षिणा इसलिए मांगी क्यूंकि वो सबकुछ उनका ही तो है. फिर इन महाशय के स्वयं धन अर्पित करने की प्रतीक्षा क्यूँ ? विचार कीजिये की यदि आप इन सज्जन के स्थान पर हैं और बाबा से कहते हैं की "बाबा! मुझसे पांच रूपए ले लो" तो क्या ऐसा नहीं हो सकता था की बाबा उनसे कहते "तू मुझे धन देगा ? तेरे पास है इतना की तू साईं को दे सके ?" ऐसे में स्थिति और भी खराब होती.

दूसरी बात धनवान व्यक्ति वास्तव में सहज नहीं होते. धन की माया किसी को भी असहज और अनावश्यक रूप से विचारशील बना देती है. इन सज्जन को तो शायद ये लगा ही नहीं होगा की बाबा उस बालक को इसलिए दौड़ा रहे हैं की इन सज्जन को शिक्षा मिले वो तो यही विचार कर रहे होंगे की बाबा जल्द से जल्द उन्हें ब्रह्मज्ञान दें. इन सज्जन के लिए ब्रह्मज्ञान पाना किसी अन्य वस्तु को पाने जैसा ही रहा होगा. सांसारिक व्यापार को चलाने वाला आध्यात्मिक व्यवहार को नहीं समझता होगा ऐसा हम समझ सकते हैं.

आखिरी बात ये की शायद ये महाशय ब्रह्मज्ञान और गुरुमंत्र में भेद ही ना कर पाए हों. गुरुमंत्र तो गुरु एक साधारण और अत्यंत आत्मीय परिस्थिति में कभी भी दे सकता है. कैसे श्रीमती कानिटकर जो बहुत छोटी उम्र में बाबा के दर्शन करने अपने परिवार के साथ गयी थी. बाबा ने उनके पैरो पर हाथ फेरकर कहा था 'जा राममय हो जा'. कहते हैं 80 वर्ष की अवस्था में भी वो अपने पैरो से भलीभांति चल सकती थी. जिस प्रकार सहजता से श्रीमति रमाबाई कानिटकर को 'रामनाम' जप का गुरुमंत्र मिला था उसी प्रकार राधाबाई देशमुख को बाबा ने कोई गुरुमन्त्र नहीं दिया. इसी प्रकार शायद ये सज्जन गुरुमंत्र की अभिलाषा में आये होंगे और श्रीसाईं की लीलावश 'ब्रह्मज्ञान' मांग बैठे.

इस प्रकार मैं ह्रदय से श्रीसाईं और उनके इस महान भक्त के चरणों में नतमस्तक हूँ जिनकी अहैतुकी कृपा से हमें ब्रह्मज्ञान जैसा विलक्षण उपदेश प्राप्त हुआ. मेरी श्रीसाईं से प्रार्थना है की हमे भी अपनी लीला का पात्र बनाए रखें. जय साईंराम