Sunday, May 31, 2009

बाबा ने त्रिपुन्ड लगाने से भी मना किया था.


पिछले अंक में हमने देखा था कि बाबा ने द्वारकामाई मशीद के जीर्णोद्दार को रोकने का प्रयास किया था. इसके पीछे शायद बाबा का सन्देश था की मेरे लिए भव्य देवालयों के निर्माण कि कोई आवश्यकता नहीं है. मगर भक्तो के प्रेमवश करुणावतार श्रीसाईं ने द्वारकामाई के जीर्णोद्धार की आज्ञा दे दी. इसी प्रकार बाबा ने अपने मस्तक पर त्रिपुंड यानी महादेव के सामान तीन लकीरों वाले तिलक कि आज्ञा भी किसी को नहीं दी थी. श्रीसाईं सत्चरित्र में वर्णन है की कैसे और किस भक्त को सबसे पहले त्रिपुंड लगाने की आज्ञा मिली. लीजिये श्रीसाईं कथा का श्रवण कीजिये.

"एक बार श्री तात्या नूलकर के मित्र डॉक्टर पंडित बाबा के दर्शनार्थ शिरड़ी पधारे। बाबा को प्रणाम कर वे मस्जिद में कुछ देर तक बैठे। बाबा ने उन्हें श्री दादा भट केलकर के पास भेजा, जहाँ पर उनका अच्छा स्वागत हुआ। फिर दादा भट और डॉ. पंडित एक साथ पूजन के लिए मस्जिद पहुँचे। दादा भट ने बाबा का पूजन किया। बाबा का पूजन तो प्राय: सभी किया करते थे, परन्तु अभी तक उनके शुभ मस्तक पर चन्दन लगाने का किसी ने भी साहस नहीं किया था। केवल एक म्हालसापति ही उनके गले में चन्दन लगाया करते थे। डॉ. पंडित ने पूजन की थाली में से चन्दन लेकर बाबा के मस्तक पर त्रिपुण्डाकार लगाया। लोगों ने महान् आर्श्चय से देखा कि बाबा ने एक शब्द भी नहीं कहा। सन्ध्या समय दादा भट ने बाबा से पूछा, "क्या कारण है कि आप दूसरों को तो मस्तक पर चन्दन नहीं लगाने देते, परन्तु डॉ. पंडित को आपने कुछ भी नहीं कहा?'' बाबा कहने लगे," डॉ. पंडित ने मुझे अपने गुरु श्री रघुनाथ महाराज धोपेश्वरकर, जो कि काका पुराणिक के नाम से प्रसिद्ध हैं, के ही समान समझा और अपने गुरु को वे जिस प्रकार चन्दन लगाते थे, उसी भावना से उन्होंने मुझे चन्दन लगाया। तब मैं कैसे रोक सकता था?'' पूछने पर डाँ. पंडित ने दादा भट से कहा कि मैंने बाबा को अपने गुरु काका पुराणिक के समान ही जानकर उन्हें त्रिपुण्डाकार चन्दन लगाया है, जिस प्रकार मैं अपने गुरु को सदैव लगाया करता था।"

इसके पश्चात मेघा बाबा को महादेव का अवतार समझकर उनके पावन विशाल मस्तक पर त्रिपुंड लगाया करते थे. आज हम चर्चा करेंगे की बाबा ने त्रिपुंड लगाने की आज्ञा भक्तो को क्यूँ नहीं दी थी? यहाँ मैं स्पष्ट कर दू ये विचार मेरे खुद के मन में उठ रहे हैं और मैं किसी भी परंपरा या मज़हब के विरुद्ध नहीं हूँ.

बाबा हमेशा से इस बात का विरोध करते रहे की उनके धर्म और जन्म के विषय में कोई प्रश्न करे. वास्तव में संत और महात्मा किसी भी धर्म या जाति विशेष के नहीं होते. संत को काम होता है समाज को मोह से ऊपर उठाकर परमपिता की सेवा और राह में लगाना. जहाँ तक सनातन धर्म का सम्बन्ध है तो सनातन धर्म का तो लक्ष्य ही मोक्ष की प्राप्ति है. मोक्ष वो है जो धर्म से ऊपर है. मोक्ष वो है जिसके लिए समाज और मानव के बनाय कोई भी बंधन मान्य नहीं हैं. इसी प्रकार बाबा जो स्वयं मोक्षदाता हैं अपनी इस लीला के द्वारा भक्तो को सन्देश देते हैं की उन्हें किसी भी धर्म विशेष से ना जोड़ा जाए. मगर यहाँ भी बाबा भक्तो के प्रेम से वशीभूत होकर डॉक्टर पंडित को त्रिपुंड की आज्ञा दे देते हैं.

आज शिर्डी जाने वालो को महसूस होता है की शायद श्रीसाईं बाबा कोई हिन्दू संत थे. बाबा की चार आरतिया होती हैं, बाबा का मंगलस्नान होता है, बाबा को भोग लगता है, रामनवमी-गुरु पूर्णिमा-दशहरा माने जाते हैं मगर रामनवमी के साथ उर्स का जो आरम्भ हुआ था वो नादाराद है, चन्दन उत्सव की कोई चर्चा नहीं होती, यहाँ तक कि इसलाम या दुसरे धर्मो का आस-पास कहीं भी चिन्ह नहीं है. द्वारकामाई मशीद में आज भी एक 'आला' है जहाँ मुसलमान नमाज़ पढ़ते हैं, मगर अजान कि कोई आवाज़ नहीं होती. बाबा ने तो शिक्षा दी है है कि सब धर्मो का सम्मान करो मगर ईद और बड़ा दिन (क्रिसमस) जैसे मुख्य गैर-हिन्दू त्यौहार आज शिर्डी में नहीं माने जाते.

बाबा के समय में भी रामलाल पंजाबी के अतिरिक्त किसी सिख भक्त वर्णन श्रीसाईं सत्चरित्र में नहीं है और सिर्फ पंजाबी लिखा होने से ही वो सिख हैं ऐसा नहीं माना जा सकता. 1918 में बाबा का भौगोलिक क्षेत्र बहुत सीमित था. बाबा के स्वयं सशरीर विचरण का स्थान नीम गाँव और रहाता तक था मगर बाबा त्रिकालज्ञ थे उन्हें दुनिया में हो रही सब घटनाओं का पूर्ण ज्ञान था. मेरे विचार से हमे श्रीसाईं बाबा और उनकी लीलाओं को और प्रेमपूर्वक समझने की आवश्यकता है. हमें बाबा से प्रार्थना करनी चाहिए की 'हे! प्रेम, दया, करुणा, और कृपा की साक्षात् मूर्ती, हमें शक्ति और विवेक दो की हम आपकी लीलाओ में छिपे आपके सन्देश को समझ सकें.' जय साईंराम

साईं भक्ति में अमीर खुसरो


जय साईराम, आप भी ये सोचकर हैरान हो रहे होंगे की आखिर अमीर खुसरू का साईं भक्ति या साईबाबा से क्या वास्ता है? वैसे तो श्रीसाईं सत्चरित्र में ये बात दावे से कही गयी है की सभी संत, पीर-फकीर, औलिया एक ही नूर और एक ही मालिक के मुरीद होते हैं और इन सबका एक आध्यात्मिक रिश्ता होता है. 1886 में जब बाबा ने बहत्तर घंटे की समाधी ली थी तब बंगाल में स्वामी रामकृष्ण परमहंस जी ने देहत्याग किया था और बाबा उन्ही से मिलने गए थे ऐसा माना जाता है. जिस तरह बाबा का सम्बन्ध एक बंगाली गुरु स्वामी रामकृष्णा परमहंस से था या बाबा का सम्बन्ध एक पीर हजरत मानिक प्रभु से था या बाबा का रिश्ता अक्कलकोट के स्वामी समर्थ से था उसी कड़ी में हम ये कह सकते हैं की बाबा का सम्बन्ध हजरत निजामुद्दीन औलिया से भी था. ये सही है की हजरत निजामुद्दीन औलिया का शारीरिक जीवनकाल 1238 - 1325 ईसवी का था मगर साईंबाबा तो चिरंतन और अयोनिज हैं. अयोनिज वो होता है जिसका जन्म माता के शरीर से नहीं होता. इसी प्रकार संत कबीर को भी अयोनिज माना जाता है. कबीर भी एक जुलाहे को जंगल में मिले थे और बाबा को भी शिर्डी के लोगो ने 1854 में एक नीम के पेड़ के नीचे बैठे पाया था. आइये अब चर्चा करें की साईं भक्ति में अमीर खुसरू क्या हैं?

अमीर खुसरू (1253-1325 ईसवी) का जन्म एक ऐसे परिवार में हुआ था जो चगेज़ खान के समय में पटियाला, हिंदुस्तान में आकर बसे थे. सिर्फ आठ साल की उम्र में अमीर खुसरू के पिता उन्हें हजरत निजामुद्दीन औलिया महबूब-ए-इलाही से मिलवाने ले गए. वहां पहुँच कर अमीर खुसरू के पिता तो अन्दर चले गए मगर खुसरू बहार ही रुक गए. खुसरू ने सोचा की मैं कुछ शेर लिखकर अन्दर भेजता हूँ, अगर हजरत निजाम ने मुझे उनका जवाब दे दिया और अन्दर बुला लिया हो ही मैं अन्दर जाऊँगा. अभी खुसरू ने दो शेर ही लिखे थे की अन्दर से एक खादिम आया और खुसरू के हाथ में एक कागज़ थमा दिया और बोला हजरत ने आपको अन्दर बुलाया है. अमीर खुसरू ने देखा की उस कागज़ में उनके लिखे दोनों शेरो का जवाब था. खुसरू ने उसी वक़्त अल्लाह का शुक्रिया अदा किया और हजरत निजामुद्दीन औलिया महबूब-ए-इलाही के जानशीन मुरीद हो गए. इसके बाद हजरत अमीर खुसरू के तमाम कलाम और शेर हजरत निजामुद्दीन औलिया के चरणों में समर्पित हो गए. इसके बाद उनका और हजरत का गुरु-शिष्य का वो रिश्ता बना की हजरत निजामुद्दीन औलिया ने यहाँ तक कहा की अगर अमीर खुसरू उनके साथ अल्लाह के दरबार में नहीं जायेगे तो उनका कदम भी जन्नत में नहीं पड़ेगा. हजरत निजाम का ही कहना था की अगर इस्लाम में दो इंसानों को एक कब्र में दफन करने की इजाज़त होती तो वो ये वसीयत करके जाते की अमीर खुसरू को उनके साथ उनकी ही कब्र में दफन किया जाए. सबसे बड़ी बात तो ये है की हजरत निजामुद्दीन औलिया महबूब-ए-इलाही के इंतकाल फरमा जाने के कुछ ही दिन बाद खुद अमीर खुसरू भी ना रहे. आज दोनों गुरु-चेले की दरगाह एक साथ दिल्ली के निजामुद्दीन क्षेत्र में आस-पास बनी हैं.

अब हम बात करते हैं साईं भक्ति में अमीर खुसरू की. अमीर खुसरू का अपने गुरु, अपने मालिक, अपने दाता पर इतना अनुराग था की वो एक लम्हे के लिए भी अपने गुरु से दूर नहीं होना चाहते हैं. अमीर खुसरू भक्ति परंपरा के अग्रणी कवियों में शामिल हैं. भक्ति और समर्पण किसे कहते हैं ये अमीर खुसरू के जीवन की घटनाओ और उनके तमाम कलाम को पढ़ कर पता चलता है. "चाप-तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाये के" इस मशहूर कव्वाली को आप सभी ने सुना होगा इसी में एक शेर है "खुसरू निजाम के बली-बली जाए, मोहे सोहागन कीनी रे मोसे नैना मिले के". यहाँ सोहागन शब्द का प्रयोग है जिसे बहुत से लोग सुहागन पढ़ते हैं. सोहागन है वो शख्स जो खुद सोहागा हो गया है और किसी को भी सोना बनाने की ताक़त रखता है. वास्तव में गुरु भक्ति और समर्पण जो समझ गया वही सोना हो गया. हजरत अमीर खुसरू किसी कलाम में सचमच ये ताक़त है की वो किसी को भी 'भक्ति और समर्पण' की राह पर ला सकते हैं.

जिस दिन अमीर खुसरू जैसा प्यार, समर्पण, भक्ति, अनुराग, बेकरारी और मिलन की बेचैनी हम साईं भक्तो में हमारे श्रीसाईं किसी लिए पैदा हो जायेगी मेरा, एक साईं सेवक का, अपने गुरु, अपने मालिक की तरफ से आपसे वादा है की आप श्रीसाईं से एकाकार हो जायेगे. श्रीसाईं आपको वो देंगे जो आपने कभी सोचा भी ना होगा, माँगना तो बहुत दूर की बात है. इसलिए मेरा आपने निवेदन है की अपने मन में श्रीसाईं किसी लिए अमीर खुसरू जैसी भक्ति और समर्पण पैदा करें. -जय साईंराम

Tuesday, May 12, 2009

बाबा ने खुद डाला मस्जिद के जीर्णोद्दार में विघ्न

ॐ साईराम, बाबा के बारे में जितना पढो उतना बाबा का विलक्षण व्यक्तित्व सामने आने लगता है. अभी-अभी बाबा की एक लीला पढ़ी की कैसे बाबा ने द्वारकामाई के जीर्णोद्दार में विघ्न डालने और काम को रोकने का प्रयास किया था. पहले में वही वर्णन आपको सुनाता हूँ.

श्री बाबा द्वारकामाई के जीर्णोद्दार के हमेशा विरोध में थे. भक्त मंडली ने द्वारकामाई के सामने मंडप बनाने का निश्चय किया क्यूंकि आरती के समय और अन्य प्रसंगों में भक्तो को धुप, बरसात, का कष्ट झेलना पड़ता था. इसलिए भक्तो ने बाबा से आज्ञा देने की विनती की. बाबा ने उसे मान्यता नहीं दी. कैलाशवासी तत्याजी पाटिल ने इस काम की जिम्मेदारी ली. पूरी तय्यारी कर ली गयी. बाबा जब लेंडी बाग़ गए तब सभा मंडप में लोहे का खम्भा (गर्डर) खडा कर दिया गया. वापिस आने पर उसे देखकर बाबा क्रोधित हो गए और बोले "मेरे द्वार के सामने रेलगाडी का पोल किसने खडा किया? दुसरे दिन भी जब बाबा लेंडी बाग़ से गए तब दुसरे खंभे को खडा करने का काम शुरू किया गया. इतने में बाबा वापिस आ गए और रुद्रावतार धारण कर लिया. उनकी क्रोधाग्नि से द्वारकामाई में उपस्थित भक्तजनों का समूह ही नहीं बल्कि निर्जीव वस्तुए भी थर-थर काँपने लगी. बाबा का ऐसा डरावना रूप देखकर कामगार मजदूर भागने लगे. बाबा खंभे के पास आकर जैसे ही खड़े हुए, तात्या पाटिल दोड़कर आगे आये और दोनों बाज़ुओ से बाबा को कास कर पकड़ लिया. उन्होंने ऊंची और रोबदार आवाज़ में मजदूरों को काम जारी रखने का हुक्म दिया. मजदूर तेजी से काम करने लगे. यह दृश्य देखकर बाबा के सर्वांग में ज्वालायें बहार आने लगी. तात्या जी ने फिर भी उन्हें नहीं छोडा. काम पूरा हो होने पर ही वे बाबा से दूर हुए. गुस्से में बाबा ने तात्या के सिर का ज़री का फेटा और ज़री का उत्तरिये खींच लिया और माचिस द्वारा उसमे आग लगा दी व यह सब एक गड्ढे में फेंक दिया. उस पर तात्या पाटिल भी गुस्से से बोले "क्या इसके बाद मैं हमेशा नंगे सिर ही रहूँगा?" पाटिल के ये शब्द सुनकर बाबा बर्फ की तरह ठंडे पड़ गए. उनका इतना ज़बरदस्त गुस्सा कहाँ गया ये तो वे ही जाने. उन्होंने बड़े प्यार से तात्या पाटिल को का हाथ पकड़ लिया. तुंरत ही उन्होंने गाँव से उत्तम ज़री का फेंटा और उत्तरीय मँगवाया. फिर जैसे छोटे बच्चे को समझाते हैं, ठीक उसी प्रकार पाटिल को समझाकर फेंटा बाँधने का आग्रह करने लगे. इतना होते ही द्वारकामाई के सामने आँगन में हजारो लोग एकत्र हो गए. हर कोई पाटिल से आग्रह करने लगा की इस बार तुम बाबा का कहना मान ही लो. तात्या पाटिल बहुत जिम्मेदार व्यक्ति थे. उन्होंने देखा की यही समय है जब सभा मंडप बाँधने (निर्माण) की अनुमति मिल सकती है. बाबा का भी अनुमति दे दी. उसके बाद पाटिल का फेंटा बाँध लिया और बाबा को नमस्कार किया.

बाबा का मस्जिद माई के जीर्णोद्दार के काम का विरोध करना उनके भविष्य की घटनाओं का ज्ञात होना बताता है. आज आप सभी जानते हैं की बाबा के भव्य और विशाल मंदिरों और भवनों का निर्माण हो रहा है. लाखो रूपए और कई सौ दिनों की मेहनत के बाद बाबा के अद्वितीय विशाल मंदिरों का निर्माण किया जाता है. बाबा के मंदिरों को खूबसूरत और भक्तो के लिए आरामदेह बनाने में ही हजारो रूपए लगा दिए जाते हैं. बाबा का शयनकक्ष एयरकंडीशंड होता है और कहीं-कहीं तो पूरा मंदिर भी एयरकंडीशंड होता है. मंदिरों में भक्तो की सुरक्षा के लिए सीसीटीवी कैमरे और लंगर के लिए विशाल हाल का निर्माण कराया जाता है. इतना सब होने पर भी अगर मंदिर में बाबा का चांदी का सिंहासन ना हो तो दानी भक्तो को बहुत बुरा सा लगता है. इतनी व्यवस्था होने के बाद दर्शनों के लिए वीआइपी और वीवीआइपी व्यवस्था होना लाज़मी सी बात है. आखिर लाखो रूपए मंदिर निर्माण में देने वाले शुद्ध ह्रदय साईं भक्त, साधारण से साईं आश्रित आम लोगो के साथ पंक्ति में खड़े होकर दर्शन तो नहीं करेंगे ना.

बहुत साल पहले द्वारकामाई के जीर्णोद्दार का विरोध करके बाबा ने साईं संगत को ये सन्देश दिया था की ना तो बाबा को भव्य भवन चाहिए और ना ही उनके भक्तो को विशाल देवालयों का निर्माण करने की कोई ज़रुरत है. बाबा ने तात्या पाटिल के ज़री के कीमती फेंटे को जलाकर संकेत दिया था की अपने मस्तिष्क में 'मंदिर निर्माता' बनकर कोई अंहकार मत पालो. बाबा ने उस ज़री के फेंटे को जला दिया और बताया की अपने अन्दर अंहकार को ऐसे ही जलाकर फेंक दो. तात्या ने पूछा "क्या इसके बाद में हमेशा नंगे सिर ही रहूँगा?" ये प्रश्न एक निश्छल और निर्मल ह्रदय भक्त का है की "क्या बाबा के आश्रय में रहकर भी मेरा स्वाभिमान समाप्त हो जाएगा?" इस पर बाबा ने तुंरत अंहकार और आडम्बर से मुक्त फेंटा मंगवाकर तात्या के सिर पर बाँधा और सभी साईं संतानों को आश्वासन दिया की बाबा द्वारा दिया गया सम्मान ही हमारे नंगे सिर पर शोभायमान होगा.