
जय साईराम, आप भी ये सोचकर हैरान हो रहे होंगे की आखिर अमीर खुसरू का साईं भक्ति या साईबाबा से क्या वास्ता है? वैसे तो श्रीसाईं सत्चरित्र में ये बात दावे से कही गयी है की सभी संत, पीर-फकीर, औलिया एक ही नूर और एक ही मालिक के मुरीद होते हैं और इन सबका एक आध्यात्मिक रिश्ता होता है. 1886 में जब बाबा ने बहत्तर घंटे की समाधी ली थी तब बंगाल में स्वामी रामकृष्ण परमहंस जी ने देहत्याग किया था और बाबा उन्ही से मिलने गए थे ऐसा माना जाता है. जिस तरह बाबा का सम्बन्ध एक बंगाली गुरु स्वामी रामकृष्णा परमहंस से था या बाबा का सम्बन्ध एक पीर हजरत मानिक प्रभु से था या बाबा का रिश्ता अक्कलकोट के स्वामी समर्थ से था उसी कड़ी में हम ये कह सकते हैं की बाबा का सम्बन्ध हजरत निजामुद्दीन औलिया से भी था. ये सही है की हजरत निजामुद्दीन औलिया का शारीरिक जीवनकाल 1238 - 1325 ईसवी का था मगर साईंबाबा तो चिरंतन और अयोनिज हैं. अयोनिज वो होता है जिसका जन्म माता के शरीर से नहीं होता. इसी प्रकार संत कबीर को भी अयोनिज माना जाता है. कबीर भी एक जुलाहे को जंगल में मिले थे और बाबा को भी शिर्डी के लोगो ने 1854 में एक नीम के पेड़ के नीचे बैठे पाया था. आइये अब चर्चा करें की साईं भक्ति में अमीर खुसरू क्या हैं?
अमीर खुसरू (1253-1325 ईसवी) का जन्म एक ऐसे परिवार में हुआ था जो चगेज़ खान के समय में पटियाला, हिंदुस्तान में आकर बसे थे. सिर्फ आठ साल की उम्र में अमीर खुसरू के पिता उन्हें हजरत निजामुद्दीन औलिया महबूब-ए-इलाही से मिलवाने ले गए. वहां पहुँच कर अमीर खुसरू के पिता तो अन्दर चले गए मगर खुसरू बहार ही रुक गए. खुसरू ने सोचा की मैं कुछ शेर लिखकर अन्दर भेजता हूँ, अगर हजरत निजाम ने मुझे उनका जवाब दे दिया और अन्दर बुला लिया हो ही मैं अन्दर जाऊँगा. अभी खुसरू ने दो शेर ही लिखे थे की अन्दर से एक खादिम आया और खुसरू के हाथ में एक कागज़ थमा दिया और बोला हजरत ने आपको अन्दर बुलाया है. अमीर खुसरू ने देखा की उस कागज़ में उनके लिखे दोनों शेरो का जवाब था. खुसरू ने उसी वक़्त अल्लाह का शुक्रिया अदा किया और हजरत निजामुद्दीन औलिया महबूब-ए-इलाही के जानशीन मुरीद हो गए. इसके बाद हजरत अमीर खुसरू के तमाम कलाम और शेर हजरत निजामुद्दीन औलिया के चरणों में समर्पित हो गए. इसके बाद उनका और हजरत का गुरु-शिष्य का वो रिश्ता बना की हजरत निजामुद्दीन औलिया ने यहाँ तक कहा की अगर अमीर खुसरू उनके साथ अल्लाह के दरबार में नहीं जायेगे तो उनका कदम भी जन्नत में नहीं पड़ेगा. हजरत निजाम का ही कहना था की अगर इस्लाम में दो इंसानों को एक कब्र में दफन करने की इजाज़त होती तो वो ये वसीयत करके जाते की अमीर खुसरू को उनके साथ उनकी ही कब्र में दफन किया जाए. सबसे बड़ी बात तो ये है की हजरत निजामुद्दीन औलिया महबूब-ए-इलाही के इंतकाल फरमा जाने के कुछ ही दिन बाद खुद अमीर खुसरू भी ना रहे. आज दोनों गुरु-चेले की दरगाह एक साथ दिल्ली के निजामुद्दीन क्षेत्र में आस-पास बनी हैं.
अब हम बात करते हैं साईं भक्ति में अमीर खुसरू की. अमीर खुसरू का अपने गुरु, अपने मालिक, अपने दाता पर इतना अनुराग था की वो एक लम्हे के लिए भी अपने गुरु से दूर नहीं होना चाहते हैं. अमीर खुसरू भक्ति परंपरा के अग्रणी कवियों में शामिल हैं. भक्ति और समर्पण किसे कहते हैं ये अमीर खुसरू के जीवन की घटनाओ और उनके तमाम कलाम को पढ़ कर पता चलता है. "चाप-तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाये के" इस मशहूर कव्वाली को आप सभी ने सुना होगा इसी में एक शेर है "खुसरू निजाम के बली-बली जाए, मोहे सोहागन कीनी रे मोसे नैना मिले के". यहाँ सोहागन शब्द का प्रयोग है जिसे बहुत से लोग सुहागन पढ़ते हैं. सोहागन है वो शख्स जो खुद सोहागा हो गया है और किसी को भी सोना बनाने की ताक़त रखता है. वास्तव में गुरु भक्ति और समर्पण जो समझ गया वही सोना हो गया. हजरत अमीर खुसरू किसी कलाम में सचमच ये ताक़त है की वो किसी को भी 'भक्ति और समर्पण' की राह पर ला सकते हैं.
जिस दिन अमीर खुसरू जैसा प्यार, समर्पण, भक्ति, अनुराग, बेकरारी और मिलन की बेचैनी हम साईं भक्तो में हमारे श्रीसाईं किसी लिए पैदा हो जायेगी मेरा, एक साईं सेवक का, अपने गुरु, अपने मालिक की तरफ से आपसे वादा है की आप श्रीसाईं से एकाकार हो जायेगे. श्रीसाईं आपको वो देंगे जो आपने कभी सोचा भी ना होगा, माँगना तो बहुत दूर की बात है. इसलिए मेरा आपने निवेदन है की अपने मन में श्रीसाईं किसी लिए अमीर खुसरू जैसी भक्ति और समर्पण पैदा करें. -जय साईंराम
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