
पिछले अंक में हमने देखा था कि बाबा ने द्वारकामाई मशीद के जीर्णोद्दार को रोकने का प्रयास किया था. इसके पीछे शायद बाबा का सन्देश था की मेरे लिए भव्य देवालयों के निर्माण कि कोई आवश्यकता नहीं है. मगर भक्तो के प्रेमवश करुणावतार श्रीसाईं ने द्वारकामाई के जीर्णोद्धार की आज्ञा दे दी. इसी प्रकार बाबा ने अपने मस्तक पर त्रिपुंड यानी महादेव के सामान तीन लकीरों वाले तिलक कि आज्ञा भी किसी को नहीं दी थी. श्रीसाईं सत्चरित्र में वर्णन है की कैसे और किस भक्त को सबसे पहले त्रिपुंड लगाने की आज्ञा मिली. लीजिये श्रीसाईं कथा का श्रवण कीजिये.
"एक बार श्री तात्या नूलकर के मित्र डॉक्टर पंडित बाबा के दर्शनार्थ शिरड़ी पधारे। बाबा को प्रणाम कर वे मस्जिद में कुछ देर तक बैठे। बाबा ने उन्हें श्री दादा भट केलकर के पास भेजा, जहाँ पर उनका अच्छा स्वागत हुआ। फिर दादा भट और डॉ. पंडित एक साथ पूजन के लिए मस्जिद पहुँचे। दादा भट ने बाबा का पूजन किया। बाबा का पूजन तो प्राय: सभी किया करते थे, परन्तु अभी तक उनके शुभ मस्तक पर चन्दन लगाने का किसी ने भी साहस नहीं किया था। केवल एक म्हालसापति ही उनके गले में चन्दन लगाया करते थे। डॉ. पंडित ने पूजन की थाली में से चन्दन लेकर बाबा के मस्तक पर त्रिपुण्डाकार लगाया। लोगों ने महान् आर्श्चय से देखा कि बाबा ने एक शब्द भी नहीं कहा। सन्ध्या समय दादा भट ने बाबा से पूछा, "क्या कारण है कि आप दूसरों को तो मस्तक पर चन्दन नहीं लगाने देते, परन्तु डॉ. पंडित को आपने कुछ भी नहीं कहा?'' बाबा कहने लगे," डॉ. पंडित ने मुझे अपने गुरु श्री रघुनाथ महाराज धोपेश्वरकर, जो कि काका पुराणिक के नाम से प्रसिद्ध हैं, के ही समान समझा और अपने गुरु को वे जिस प्रकार चन्दन लगाते थे, उसी भावना से उन्होंने मुझे चन्दन लगाया। तब मैं कैसे रोक सकता था?'' पूछने पर डाँ. पंडित ने दादा भट से कहा कि मैंने बाबा को अपने गुरु काका पुराणिक के समान ही जानकर उन्हें त्रिपुण्डाकार चन्दन लगाया है, जिस प्रकार मैं अपने गुरु को सदैव लगाया करता था।"
इसके पश्चात मेघा बाबा को महादेव का अवतार समझकर उनके पावन विशाल मस्तक पर त्रिपुंड लगाया करते थे. आज हम चर्चा करेंगे की बाबा ने त्रिपुंड लगाने की आज्ञा भक्तो को क्यूँ नहीं दी थी? यहाँ मैं स्पष्ट कर दू ये विचार मेरे खुद के मन में उठ रहे हैं और मैं किसी भी परंपरा या मज़हब के विरुद्ध नहीं हूँ.
बाबा हमेशा से इस बात का विरोध करते रहे की उनके धर्म और जन्म के विषय में कोई प्रश्न करे. वास्तव में संत और महात्मा किसी भी धर्म या जाति विशेष के नहीं होते. संत को काम होता है समाज को मोह से ऊपर उठाकर परमपिता की सेवा और राह में लगाना. जहाँ तक सनातन धर्म का सम्बन्ध है तो सनातन धर्म का तो लक्ष्य ही मोक्ष की प्राप्ति है. मोक्ष वो है जो धर्म से ऊपर है. मोक्ष वो है जिसके लिए समाज और मानव के बनाय कोई भी बंधन मान्य नहीं हैं. इसी प्रकार बाबा जो स्वयं मोक्षदाता हैं अपनी इस लीला के द्वारा भक्तो को सन्देश देते हैं की उन्हें किसी भी धर्म विशेष से ना जोड़ा जाए. मगर यहाँ भी बाबा भक्तो के प्रेम से वशीभूत होकर डॉक्टर पंडित को त्रिपुंड की आज्ञा दे देते हैं.
आज शिर्डी जाने वालो को महसूस होता है की शायद श्रीसाईं बाबा कोई हिन्दू संत थे. बाबा की चार आरतिया होती हैं, बाबा का मंगलस्नान होता है, बाबा को भोग लगता है, रामनवमी-गुरु पूर्णिमा-दशहरा माने जाते हैं मगर रामनवमी के साथ उर्स का जो आरम्भ हुआ था वो नादाराद है, चन्दन उत्सव की कोई चर्चा नहीं होती, यहाँ तक कि इसलाम या दुसरे धर्मो का आस-पास कहीं भी चिन्ह नहीं है. द्वारकामाई मशीद में आज भी एक 'आला' है जहाँ मुसलमान नमाज़ पढ़ते हैं, मगर अजान कि कोई आवाज़ नहीं होती. बाबा ने तो शिक्षा दी है है कि सब धर्मो का सम्मान करो मगर ईद और बड़ा दिन (क्रिसमस) जैसे मुख्य गैर-हिन्दू त्यौहार आज शिर्डी में नहीं माने जाते.
बाबा के समय में भी रामलाल पंजाबी के अतिरिक्त किसी सिख भक्त वर्णन श्रीसाईं सत्चरित्र में नहीं है और सिर्फ पंजाबी लिखा होने से ही वो सिख हैं ऐसा नहीं माना जा सकता. 1918 में बाबा का भौगोलिक क्षेत्र बहुत सीमित था. बाबा के स्वयं सशरीर विचरण का स्थान नीम गाँव और रहाता तक था मगर बाबा त्रिकालज्ञ थे उन्हें दुनिया में हो रही सब घटनाओं का पूर्ण ज्ञान था. मेरे विचार से हमे श्रीसाईं बाबा और उनकी लीलाओं को और प्रेमपूर्वक समझने की आवश्यकता है. हमें बाबा से प्रार्थना करनी चाहिए की 'हे! प्रेम, दया, करुणा, और कृपा की साक्षात् मूर्ती, हमें शक्ति और विवेक दो की हम आपकी लीलाओ में छिपे आपके सन्देश को समझ सकें.' जय साईंराम