
Saturday, August 29, 2009
ये गर्व भरा मस्तक मेरा...

Saturday, July 25, 2009
श्रद्धा और सबूरी - भाग दो
Wednesday, June 17, 2009
मानसिक चिकित्सा है श्रद्धा और सबूरी

Sunday, May 31, 2009
बाबा ने त्रिपुन्ड लगाने से भी मना किया था.

पिछले अंक में हमने देखा था कि बाबा ने द्वारकामाई मशीद के जीर्णोद्दार को रोकने का प्रयास किया था. इसके पीछे शायद बाबा का सन्देश था की मेरे लिए भव्य देवालयों के निर्माण कि कोई आवश्यकता नहीं है. मगर भक्तो के प्रेमवश करुणावतार श्रीसाईं ने द्वारकामाई के जीर्णोद्धार की आज्ञा दे दी. इसी प्रकार बाबा ने अपने मस्तक पर त्रिपुंड यानी महादेव के सामान तीन लकीरों वाले तिलक कि आज्ञा भी किसी को नहीं दी थी. श्रीसाईं सत्चरित्र में वर्णन है की कैसे और किस भक्त को सबसे पहले त्रिपुंड लगाने की आज्ञा मिली. लीजिये श्रीसाईं कथा का श्रवण कीजिये.
"एक बार श्री तात्या नूलकर के मित्र डॉक्टर पंडित बाबा के दर्शनार्थ शिरड़ी पधारे। बाबा को प्रणाम कर वे मस्जिद में कुछ देर तक बैठे। बाबा ने उन्हें श्री दादा भट केलकर के पास भेजा, जहाँ पर उनका अच्छा स्वागत हुआ। फिर दादा भट और डॉ. पंडित एक साथ पूजन के लिए मस्जिद पहुँचे। दादा भट ने बाबा का पूजन किया। बाबा का पूजन तो प्राय: सभी किया करते थे, परन्तु अभी तक उनके शुभ मस्तक पर चन्दन लगाने का किसी ने भी साहस नहीं किया था। केवल एक म्हालसापति ही उनके गले में चन्दन लगाया करते थे। डॉ. पंडित ने पूजन की थाली में से चन्दन लेकर बाबा के मस्तक पर त्रिपुण्डाकार लगाया। लोगों ने महान् आर्श्चय से देखा कि बाबा ने एक शब्द भी नहीं कहा। सन्ध्या समय दादा भट ने बाबा से पूछा, "क्या कारण है कि आप दूसरों को तो मस्तक पर चन्दन नहीं लगाने देते, परन्तु डॉ. पंडित को आपने कुछ भी नहीं कहा?'' बाबा कहने लगे," डॉ. पंडित ने मुझे अपने गुरु श्री रघुनाथ महाराज धोपेश्वरकर, जो कि काका पुराणिक के नाम से प्रसिद्ध हैं, के ही समान समझा और अपने गुरु को वे जिस प्रकार चन्दन लगाते थे, उसी भावना से उन्होंने मुझे चन्दन लगाया। तब मैं कैसे रोक सकता था?'' पूछने पर डाँ. पंडित ने दादा भट से कहा कि मैंने बाबा को अपने गुरु काका पुराणिक के समान ही जानकर उन्हें त्रिपुण्डाकार चन्दन लगाया है, जिस प्रकार मैं अपने गुरु को सदैव लगाया करता था।"
इसके पश्चात मेघा बाबा को महादेव का अवतार समझकर उनके पावन विशाल मस्तक पर त्रिपुंड लगाया करते थे. आज हम चर्चा करेंगे की बाबा ने त्रिपुंड लगाने की आज्ञा भक्तो को क्यूँ नहीं दी थी? यहाँ मैं स्पष्ट कर दू ये विचार मेरे खुद के मन में उठ रहे हैं और मैं किसी भी परंपरा या मज़हब के विरुद्ध नहीं हूँ.
बाबा हमेशा से इस बात का विरोध करते रहे की उनके धर्म और जन्म के विषय में कोई प्रश्न करे. वास्तव में संत और महात्मा किसी भी धर्म या जाति विशेष के नहीं होते. संत को काम होता है समाज को मोह से ऊपर उठाकर परमपिता की सेवा और राह में लगाना. जहाँ तक सनातन धर्म का सम्बन्ध है तो सनातन धर्म का तो लक्ष्य ही मोक्ष की प्राप्ति है. मोक्ष वो है जो धर्म से ऊपर है. मोक्ष वो है जिसके लिए समाज और मानव के बनाय कोई भी बंधन मान्य नहीं हैं. इसी प्रकार बाबा जो स्वयं मोक्षदाता हैं अपनी इस लीला के द्वारा भक्तो को सन्देश देते हैं की उन्हें किसी भी धर्म विशेष से ना जोड़ा जाए. मगर यहाँ भी बाबा भक्तो के प्रेम से वशीभूत होकर डॉक्टर पंडित को त्रिपुंड की आज्ञा दे देते हैं.
आज शिर्डी जाने वालो को महसूस होता है की शायद श्रीसाईं बाबा कोई हिन्दू संत थे. बाबा की चार आरतिया होती हैं, बाबा का मंगलस्नान होता है, बाबा को भोग लगता है, रामनवमी-गुरु पूर्णिमा-दशहरा माने जाते हैं मगर रामनवमी के साथ उर्स का जो आरम्भ हुआ था वो नादाराद है, चन्दन उत्सव की कोई चर्चा नहीं होती, यहाँ तक कि इसलाम या दुसरे धर्मो का आस-पास कहीं भी चिन्ह नहीं है. द्वारकामाई मशीद में आज भी एक 'आला' है जहाँ मुसलमान नमाज़ पढ़ते हैं, मगर अजान कि कोई आवाज़ नहीं होती. बाबा ने तो शिक्षा दी है है कि सब धर्मो का सम्मान करो मगर ईद और बड़ा दिन (क्रिसमस) जैसे मुख्य गैर-हिन्दू त्यौहार आज शिर्डी में नहीं माने जाते.
बाबा के समय में भी रामलाल पंजाबी के अतिरिक्त किसी सिख भक्त वर्णन श्रीसाईं सत्चरित्र में नहीं है और सिर्फ पंजाबी लिखा होने से ही वो सिख हैं ऐसा नहीं माना जा सकता. 1918 में बाबा का भौगोलिक क्षेत्र बहुत सीमित था. बाबा के स्वयं सशरीर विचरण का स्थान नीम गाँव और रहाता तक था मगर बाबा त्रिकालज्ञ थे उन्हें दुनिया में हो रही सब घटनाओं का पूर्ण ज्ञान था. मेरे विचार से हमे श्रीसाईं बाबा और उनकी लीलाओं को और प्रेमपूर्वक समझने की आवश्यकता है. हमें बाबा से प्रार्थना करनी चाहिए की 'हे! प्रेम, दया, करुणा, और कृपा की साक्षात् मूर्ती, हमें शक्ति और विवेक दो की हम आपकी लीलाओ में छिपे आपके सन्देश को समझ सकें.' जय साईंराम
साईं भक्ति में अमीर खुसरो

Tuesday, May 12, 2009
बाबा ने खुद डाला मस्जिद के जीर्णोद्दार में विघ्न

Thursday, April 9, 2009
गुस्सा भी आता था श्रीसाईं को
"सभी भक्त रामजन्मोत्सव मनाने की तैयारियाँ करने लगे। कीर्तन प्रारम्भ हो गया था। कीर्तन समाप्त हुआ, तब "श्री राजाराम' की उच्च स्वर से जयजयकार हुई। कीर्तन के स्थान पर गुलाल की वर्षा की गई। जब हर कोई प्रसन्नता से झूम रहा था, तब अचानक ही एक गर्जती हुई ध्वनि उनके कानों पर पड़ी। वस्तुत: जिस समय गुलाल की वर्षा हो रही थी तो उसमें के कुछ कण अनायास ही बाबा की आँख में चले गये। तब बाबा एकदम क्रुद्ध होकर उच्च स्वर में अपशब्द कहने व कोसने लगे। यह दृश्य देखकर सब लोग भयभीत होकर सिटपिटाने लगे।"
"एक बार शामा को विषधर सर्प ने उसके हाथ की उँगली में डस लिया। शामा मस्जिद की ओर ही दौड़ा-अपने विठोबा श्री साईबाबा के पास। जब बाबा ने उन्हें दूर से आते देखा तो वे झिड़कने और गाली देने लगे। वे क्रोधित होकर बोले-""अरे ओ नादान कृतघ्न बम्मन ! ऊपर मत चढ़। सावधान, यदि ऐसा किया तो ।'' और फिर गर्जना करते हुए बोले, "" हट, दूर हट, नीचे उतर।''
"एक अवसर पर मौसीबाई बाबा का पेट बलपूर्वक मसल रही थीं, जिसे देख कर दर्शकगण व्यग्र होकर मौसीबाई से कहने लगे कि ""माँ! कृपा कर धीरे-धीरे ही पेट दबाओ। इस प्रकार मसलने से तो बाबा की अंतड़ियाँ और नाड़ियाँ ही टूट जाएँगी।'' वे इतना कह भी न पाए थे कि बाबा अपने आसन से तुरन्त उठ बैठे और अंगारे के समान लाल आँखें कर क्रोधित हो गए। साहस किसे था, जो उन्हें रोके? उन्होंने दोनों हाथों से सटके का एक छोर पकड़ नाभि में लगाया और दूसरा छोर जमीन पर रख उसे पेट से धक्का देने लगे। सटका (सोटा) लगभग 2 या 3 फुट लम्बा था। लोग शोकित एवं भयभीत हो उठे कि अब पेट फटने ही वाला है। बाबा अपने स्थान पर दृढ़ हो, उसके अत्यन्त समीप होते जा रहे थे और प्रतिक्षण पेट फटने की आशंका हो रही थी।"
"विजया दशमी के दिन जब लोग सन्ध्या के समय " सीमोल्लंघन' से लौट रहे थे तो बाबा सहसा ही क्रोधित हो गए। सिर पर का कपड़ा, कफनी और लँगोटी निकालकर उन्होंने उसके टुकड़े-टुकड़े करके जलती हुई धूनी में फेंक दिए। वे पूर्ण दिगम्बर खड़े थे और उनकी आँखें अंगारे के समान चमक रही थीं । उन्होंने आवेश में आकर उच्च स्वर में कहा कि "लोगो! यहाँ आओ, मुझे देखकर पूर्ण नि‚चय कर लो कि मैं हिन्दू हूँया मुसलमान।'' सभी भय से काँप रहे थे।"
श्रीसाईं सत्चरित्र में वर्णित उपरोक्त घटनाओं से स्पष्ट है हमारे परमशांत आत्मस्थित श्रीसाईं को बहुत क्रोध आता था. कभी-कभी तो ये क्रोध और बाबा के अपशब्द इतना बढ़ जाते थे की भक्तो को बाबा से संत स्वरुप होने पर संदेह होने लगता था. बाबा क्रोध में अपशब्द कहते और कभी-कभी तो आस-पास रखी वस्तुए उठाकर फेकने लगते थे. मगर आपने देखा होगा की माँ भी कभी-कभी क्रोध में बच्चे को मारती है मगर ये स्वभावगत होता है की माँ की इस मार का बच्चे को हमेशा लाभ ही होता है. बाबा की इन कथाओं से स्पष्ट है की बाबा भी भक्तो के विकारों और दुर्गुणों को दूर करने के लिए उन्हें अपशब्द कहते या दुत्कारते थे.
रामनवमी के अवसर पर बाबा का क्रोध करना स्वाभाविक था क्यंकि इस दिन बाबा भक्तो को दिखाना चाहते थे की उनके अन्दर बसे रावण का संहार करने के लिए ही बाबा यहाँ भक्तो के बीच में आये हैं और रामनवमी का अर्थ भी श्रीसाईं की शिक्षाओं में यही है की रामनवमी के दिन हम अपने मन में, अपने चरित्र में श्रीराम को स्थापित करें और अपने अन्दर के रावण से मुक्ति पायें.
दूसरी घटना शामा के लिए नहीं बल्कि विषधर सर्प के लिए कही गयी थी. साँप का ज़हर धीरे-धीरे शामा के अन्दर चढ़ रहा था और बाबा ने उसे ही लक्ष्य करके उसे नीचे उतरने का आदेश दिया था.
तीसरी घटना स्पष्ट करती है की बाबा का अपने भक्तो से अनन्य प्रेम और अनुराग था. बाबा चाहते थे की भक्त उनकी पूजा अपने मन के अनुसार करें, क्यूंकि जब मन बाबा से जुड़ जायेगा तो मोक्ष प्राप्ति में कोई अवरोध नहीं होगा.
चौथी घटना विशेष रूप से भक्तो को दो बात स्पष्ट करने के लिए थी. पहली तो ये की बाबा को उनके धर्म विशेष से संबोधित करना मूर्खता है और बाबा को ये बिलकुल पसंद नहीं था और दूसरे इस घटना के ठीक एक वर्ष बाद बाबा ने अपनी पावन देह त्याग दी और सदा के लिए भक्तो के ह्रदय में बस गए.
हमारे लिए इन घटनाओं का विशेष महत्त्व ये है की यदि हम बाबा की शिक्षाओं के अनुकूल नहीं रहे तो बाबा एक बार फिर क्रोधित होकर हमे अपना रौद्र रूप दिखा सकते हैं. मेरी तो बाबा से प्रार्थना है की बाबा चाहे दंड देने में लिए ही सही कम से कम हमें एक बार दर्शन तो दो. जय साईं राम.
दियासलाईया इकट्ठी करने वाला संत साईबाबा

यहाँ सवाल ये है की क्या आप बता सकते हैं की आखिर इनमे से कौन बाबा को सच्चा प्यार करता है? दोनों ही तरफ के अपने तर्क हैं और अपनी भावनाए। वास्तव में बाबा दोनों ही के दिल में हैं. ना तो अमीर झूठा और ना ही गरीब फरेबी. कुछ साईं मंदिरों में बाबा का शयनकक्ष बनाया गया है जिसमे एअरकंडीशनर तक लगा है और कुछ आस्था के मंदिर ऐसे भी हैं जहाँ बाबा खुले आसमान के नीचे चौबीसों घंटे अपने प्यारे बच्चो के लिए विराजमान हैं. दुनिया में इतना विशाल और विलक्षण व्यक्तित्व श्रीसाईं के अलावा और शायद किसी का नहीं है. बाबा अपने सभी बच्चो को सामान नज़र से देखते हैं और उनका प्यार भी सभी के लिए एक जैसा है. बाबा को ना तो स्वर्ण आभूषनो से जड़े अलंकारों से प्रेम है और ना ही सूती कपडे पहनने में कोई घृणा. बाबा एक निर्विकार और निर्लिप्त पिता के सामान सभी को एक समझते हैं.
बाबा सिर्फ हमारी तरफ देखते हैं और हमारा उद्धार सिर्फ उस इक निगाह से हो जाता है। बाबा को देसी घी में बने हलुए और मिष्ठान भी उतनी ही तृप्ति देते हैं जितना सुख उन्हें खिचडी और भाकरी में मिलता है। अब आप ही बताओ बाबा को हम आखिर दें तो क्या दें? बाबा को सिर्फ हमारा प्यार और समर्पण चाहिए। बाबा को ऐसे भक्तो की भारी भीड़ चाहिए जो उनके दिखाए रास्ते पर चले और उनके दिव्य संदेशो को दुनिया के सभी दुखी और बेसहारा लोगो तक पहुंचाय। बाबा ने श्रीसाईं सत्चरित्र में अपना दिव्य रूप तो दिखाया ही है साथ ही बताया है की वो दियसलाइया इकट्ठी करने वाले एक दिव्य पुरुष हैं। मुझे तो बाबा ऐसे ही दिखाई देते हैं और मेरी बाबा से प्रार्थना है की हमेशा मेरे मन में वही दियासलाईया इकट्ठी करने वाले संत के रूप में विराजमान रहना जिससे मैं भी खुद को अंहकार से वशीभूत होता ना पाऊ। जय साईंराम।
Sunday, March 8, 2009
श्री मुकुल नाग से साईं चर्चा में अमित माथुर
अमित: श्री साईं सत्चरित्र के अनुसार बाबा ने बहुत सी लीलाये की हैं। किसी सज्जन ने तो गड़ना की है श्रीसाईं सत्चरित्र में 64 चमत्कारों का उल्लेख है। आपको बाबा की कौन सी लीला सबसे मनोहर लगती है और क्यूँ?
मुकुलजी: बाबा ने 64 लीलाये नहीं 64 चमत्कार किये हैं ऐसा लिखा है। लीलाओ और चमत्कारों में कुछ भेद है, ऐसा मुझे लगता है।
अमित: कृपया स्पष्ट कीजिये...
मुकुलजी: वास्तव में चमत्कार तो वो हैं जो किसी न किसी प्रकार से विज्ञान के बनाए नीति-नियमो को गलत ठहराते हैं मगर लीलाये वो हैं जो भक्त के मन को पूरी तरह से आंदोलित करके भक्त के मन में परिवर्तन कर देती हैं और भक्त के मन में भगवान् और गुरु को स्थाई रूप से विराजमान कर देती हैं।
अमित: जी, मेरा प्रश्न स्वाभावतः चमत्कारों से है क्यूंकि बाबा की लीलाओ को अच्छा या कमतर आंकना बेवकूफी की बात है।
मुकुलजी (हंसते हुए): हाँ सच कहा बाबा के विषय में बोलते हुए अपने मन-मस्तिष्क को पूरी तरह बाबा के ध्यान में लगाना चाहिए। चलिए अब आपके प्रश्न का उत्तर देने का प्रयास करता हूँ। बाबा से प्रार्थना है की मेरे उत्तर को आपके पाठको के लिए लाभदायक बनाए. बाबा के बहुत से चमत्कारों में केवल बाबा की भक्त परायणता ही दिखाई देती है. बाबा ने कोई भी चमत्कार केवल इसलिए नहीं किया की लोग उस चमत्कार से प्रभावित होंगे, बल्कि ज्यादातर चमत्कार बाबा ने भक्तो को शिक्षा देने के उद्देश्य से किये थे. मुझे बाबा के वो चमत्कार पसंद हैं जहाँ वो शिर्डी से जाने वालो को अपनी मर्ज़ी से आज्ञा देते थे. बाबा की बात ना मानने वाले भक्तो को कष्ट ही उठाना पड़ता था. इसीलिए सच है की 'बाबा को मानो और बाबा की मानो'.
अमित: बाबा के भक्तो में सबसे प्रिये भक्त आपको कौन लगता है? बाबा को तो सभी भक्त प्रिये थे मगर आपको श्रीसाई लीलापुरुषोत्तम का कौन सा भक्त सबसे अच्छा लगता है?
मुकुलजी: वैसे तो सभी भक्त अपने-अपने स्थान पर बाबा के संदेशो और शिक्षाओं को सामने लाते हैं मगर मुझे श्यामा गुरूजी सबसे अधिक पसंद हैं। इसका सबसे बड़ा कारण तो ये है की सदगुरु के चरणों में ये गुरु सदा झुकते रहे और साथ ही साथ बाबा से सबसे अधिक तर्क-वितर्क भी श्यामा गुरूजी ही किया करते थे। मुझे याद आता है स्वामी रामकृष्णा परमहंस ने कहा था की शिष्यों का अधिकार है की वो अपने गुरु को अच्छी तरह से ठोक-बजा कर देख लें और जब सब कुछ सही लगे तब अपना सर्वस्व उस गुरु के चरणों में अर्पित कर दें. श्यामा गुरूजी भी इसी प्रकार बाबा के द्वारा होने वाली लीलाओ का कारण पूछकर प्यासे भक्तो को ज्ञान रुपी शिक्षाओं का पान करवाते थे. यही कारण है की मुझे श्यामा गुरूजी सबसे अधिक पसंद हैं.
अमित: बाबा ने अध्याय 49 में नानासाहेब चांदोरकर को मन पर लगाम रखने और इन्द्रियों को लम्पट होने से रोकने पर बल दिया है। आज के समय में क्या संभव है?
मुकुलजी: बिलकुल नहीं, मेरे विचार से बाबा की किसी भी शिक्षा में उसे अक्षरक्ष पालन करने को कहा हो ऐसा नहीं है। आज के समय में जब हमारे आस-पास का सारा संसार लम्पट हो रहा है तो हमारे लिए साधू बने रहना बिलकुल भी संभव नहीं है। मगर वहीँ आपने ध्यान दिया हो तो ऐसा कहा गया है की आप सुन्दरता को क्या सोचकर देखें. मन को लम्पट न होने देने का एक साधन तो यही है की आप किसी की सुन्दरता में वासना नहीं बल्कि परमपिता परमेश्वर की रचना का दर्शन करें. आप सुन्दर युवती या युवक को देखकर परमेश्वर को शुक्रिया करें की हे परमेश्वर तूने कितनी सुन्दर रचना की है. मन में वासनात्मक विचारों को ना आने दें. प्रत्येक स्थिति में सामान्य रहे.
अमित: मेरा अनुभव है की बाबा से जुड़ने और बाबा का अत्यधिक ध्यान करने पर हमारी मनःस्थिति बदल जाती है। हमारी सोच और ध्यान इस जग से हटने लगता है इसे रोकने का कोई तरीका आपके पास है?
मुकुलजी: पहले तो ये बताओ की बाबा के विचारो और शिक्षाओं की गंगा में बहने से खुद को रोकना ही क्यूँ है?
अमित: क्यूंकि बाबा के विचारो में रहने के कारण हमारा सामाजिक और पारिवारिक जीवन व्यवस्थित नहीं रहता...
मुकुलजी: हाँ, ये बात किसी हद तक सच है। जब आप बाबा के और उनकी लीलाओ के और उनके ध्यान में खोने लगते हैं तो पारिवारिक और सामाजिक जीवन जहाँ झूट बोलना, छल करना, गलत सोचना एक स्वाभाविक क्रिया है, प्रभावित होता है. मगर मेरे विचार से इस व्यवस्था का सञ्चालन करने का कार्य भी हमें बाबा को ही सौंप देना चाहिए. मैंने बहुत से साईं भक्तो को देखा है जो बाबा के ही ध्यान में डूबे रहते हैं मगर आप उन्हें कभी उनके कार्य स्थान पर देखिये, शायद आपको लगेगा की ये 'साईं भक्त' होने का ढोंग कर रहे हैं मगर वो बाबा के द्वारा संचालित क्रिया है जिससे वो यहाँ भी हैं और वहां भी.
अमित: मुकुल भैया, आपका बहुत बहुत धन्यवाद हमसे बातें करने के लिए। मैं बाबा से प्रार्थना करूँगा की आपकी इस चर्चा से साईं भक्तो को अध्यात्मिक लाभ प्राप्त हो। जय साईं राम.
मुकुलजी: जय साईं राम, मालिक आप सबका भला करे.
महामंदी से दुनिया परेशान है, साईं भक्तो के मुखड़े पर फिर भी मुस्कान है
त्यौहार फीके, रंग बेरंग, आम ज़िन्दगी का रूप बदरंग। दुनिया भर में छाई महामंदी से छोटे से छोटा और बड़े से बड़ा सभी दुखी हैं. श्रीसाईं सत्चरित्र का विवरण लें तो बिलकुल वही दृश्य है जो शिर्डी के आसपास हैजा फैलने के समय था. जहाँ-तहां लोग मर रहे थे, परेशान थे, दुखी थे मगर श्रीसाईं के आशीर्वाद से शिर्डी की सीमओं के भीतर उस हैजे के प्रकोप ने अपने पैर तक नहीं धरे. हम श्रीसाईं के बच्चे हैं हमारा ये मानना है की हमारा मन श्रीसाई की शिर्डी है तो हमें ये भी समझना होगा की ये महामंदी उस हैजे के समान है. अगर उस हैजे का प्रकोप शिर्डी में क़दम नहीं धर सका था तो ये महामंदी हमारे मन को कैसे विचलित कर सकती है? जानता हूँ आप यही सोच रहे हैं की जिनको उस महामंदी ने निगला है उनमें से शायद मैं नहीं हूँ. बिलकुल सही है मगर पर-पीडा को ना समझ सकूं इतना कृपण भी मैं नहीं हूँ. मैं जानता हूँ की इस विकट परिस्थिति में जहाँ लोगो नें अपनी लगभग आधी सेलरी के बराबर किस्तें बना रखी हैं वो रखी सेलेरी आधी ही रह जायेगी तो कितनी मुसीबत में आ जायेंगे.
श्रीसाईं सत्चरित्र के अध्याय 18-19 में हेमाडपंत वर्णन करते हैं की सदगुरु अपनी संतानों का ध्यान वैसे ही रखते हैं जैसे एक कछुवी अपने बच्चो का ध्यान रखती है। कछुवी के बच्चे नदी के एक किनारे पर होते हैं और वो खुद दुसरे किनारे पर उसके बाद में कछुवी की प्रेम भरी दृष्टी ही उसके बच्चो का पालन-पोषण करती है. इसी प्रकार श्रीसाईं भी अपने बच्चो का पालन करते हैं. श्रीसाई की कृपा दृष्टी से उनके बच्चो के घर अन्न और वस्त्रो का कभी अभाव नहीं होता. बाबा ने इसी अध्याय में बताया है की उनके गुरु महाराज ने उनसे केवल दो पैसे मांगे थे 'श्रद्धा' और 'सबूरी' इसके अतिरिक्त उन्होंने अपने शिष्यों को कोई गुरु मन्त्र नहीं दिया. बाबा ने भी सबसे यही दो वचन मांगे हैं.
आज इस महामंदी के विकराल दानव से श्रीसाईं के ये दो पैसे ही हमारी रक्षा करेंगे. आप अपने मन में 'श्रद्धा' रखें की श्रीसाईं हमारी कछुवी माँ है तो हमें केवल उस माँ के प्यार के सहारे ही इस दानव का सर्वनाश करने में सफलता मिलेगी बस इसके लिए हमें दुसरे पैसे 'सबूरी' की सहायता लेनी होगी. बहुत पहले एक साईंभक्त बहिन ने मुझे कहा था की 'बाबा को मत बताओ की तुम्हारी परेशानी कितनी बड़ी है, उस परेशानी को बताओ की तुम्हारा बाबा कितना बड़ा है'. बाबा ने खुद नाना साहेब चांदोरकर से कहा था "तुला कालजी कासले, माझा सारा कालजी आहे' यानि 'तुम्हे चिंता किस बात की है, तुम्हारी चिंता मुझे है'. तो अग़र वो बाबा हमारा करता धरता है तो हमें चिंता करने की कोई ज़रुरत ही नहीं है. आप साईं में यकीन रखें तो वो आपके यकीन में असर पैदा करेगा. बस यहीं हमेशा ध्यान रखें 'बाबा है ना'. दुनिया को दें की 'महामंदी से दुनिया परेशान है, साईं भक्तो के मुखड़े पर फिर भी मुस्कान है'.
Thursday, February 26, 2009
मैं साईबाबा नहीं हूँ
2007 की उस पवित्र शाम के बाद से बाबा ने मेरे चारो तरफ़ कसा अपना बाहों का शिकंजा और मज़बूत कर दिया। पहले तो शूटिंग के बाद कभी-कभी बाबा का विस्मरण को भी जाता था मगर अब तो जब शूटिंग नहीं होती तब कहीं न कहीं, कोई ना कोई मुझे मुझे बाबा के रूप में 'संदेश प्रचार' के लिए बुलावा दे ही देता है। कभी दिल्ली तो कभी लखनऊ, कभी इंदौर और कभी फगवाडा। बाबा को जहाँ भी अपनी उपस्थिति देनी होती है वो मेरे सर पर अपना हाथ रखते हैं और मुझे वहां जाने का सौभाग्य मिलता है। बाबा का रूप धारण करने के बाद मैं सिर्फ़ बाबा के ही बारे में सोचता हूँ। मेरी कोशिश होती है की बाबा के संदेशो को समय के साथ जोड़कर तमाम उपस्थित साईं भक्तो को कोई ऐसा संदेश दूँ की बाबा मुझसे खुश हों। मुझे परेशानी सिर्फ़ एक ही बात से होती है की बाबा का रूप धारण करने के बाद साईं के भक्त मेरे पैर छूते हैं और मुझे बाबा मानते हैं। मेरा मानना है की बाबा एक ही है। वो सबका मालिक भी है मित्र भी। बाबा ना तो कोई बन सका है और ना ही कोई बनेगा। वैसे अपनी जगह सभी संतो का एक विशेष स्थान है और मानव समाज को एक अच्छा समाज बनाने में सभी प्रयासरत हैं।
मैं तो सिर्फ़ यही निवेदन करना चाहूँगा की बाबा के पैर छूकर उनसे आशीर्वाद लेना ही सबसे श्रेयस्कर है। मुकुल नाग तो आपको सिर्फ़ एक दोस्त और भाई की तरह दुआ दे सकता है मगर इस दुआ को ज़िन्दगी में बदलने की ताक़त सिर्फ़ और सिर्फ़ अनंतकोटी ब्रह्माण्डनायक राजाधिराज योगिराज परब्रह्म श्रीसच्चिदानंद समर्थ सतगुरु साईनाथ महाराज में ही है। आप सबको बाबा खुशी, सामर्थ्य और शान्ति दें यही बाबा से प्रार्थना है। -जय साईंराम
Tuesday, February 24, 2009
बाय बाय मनमाड
आप सोच रहे होंगे की आज अचानक मुझे मनमाड रेलवे स्टेशन क्यूँ याद आ रहा है। इसकी वजह यही है की मनमाड अब सिर्फ़ यादो में रह जाने वाला है। शिर्डी का अपना रेलवे स्टेशन अब बनकर तैयार है और इस महीने के आख़िर तक साईंनगर शिर्डी नाम के इस रेलवे स्टेशन का शुभारम्भ होने की उम्मीद है। सभी साईं भक्त अब सीधे शिर्डी रेलवे स्टेशन पर आने का सपना देख रहे हैं। अपनी शिर्डी यात्रा में मुझे सौभाग्य मिला की मैं श्री साईं के सबसे नज़दीक पहुँचने वाली ट्रेन के इस स्टेशन को देखू। सभी साईं भक्तो के लिए मैं इस रेलवे स्टेशन का विडियो अपने ब्लॉग पर दे रहा हूँ।
सभी साईं भक्तो की तमन्ना अब इस रेलवे स्टेशन के शुरू होने बाद पूरी हो जायेगी मगर एक दिन शायद मनमाड स्टेशन को सब भूल जायेंगे।
मनमाड स्टेशन ने 108 सालो तक साईं भक्तो की सेवा की है। मनमाड ने देखा है बाबा के बहुत से वचनों को सत्य होते हुए। इनमे से एक वचन था की 'एक दिन मेरे भक्त यहाँ चीटियों की भाँती आयंगे।' मनमाड ने देखा की जब भीड़ बहुत ज्यादा होती है तब कैसे साईं भक्त एक दूसरे का हाथ थाम कर पुल की सीढिया चढ़ते हैं। मनमाड ने देखा है की स्टेशन मास्टर के माथे पर कैसे पसीना आता है जब हजारो की भीड़ को प्लेटफार्म पर नियंत्रित करना होता है। मनमाड देखा है कैसे ऑटो और टैक्सी वाले यहाँ रुकने वाली हर एक ट्रेन को आशा की नज़र से देखते हैं और ग्राहक मिलने के बाद साईबाबा को धन्यवाद करते हैं। मनमाड ने देखा है कैसे लोग यहाँ गाड़ी का टाइम होने से दो-दो घंटे पहले आते हैं और स्टेशन के सामने वाले ढाबो में नाश्ता करते हैं। मनमाड ने देखा है की यहाँ से अपने शहर को जाने वाले कितनी मायूसी से इस स्टेशन को देखते हैं और साईं से प्रार्थना करते हैं की बाबा हमे फिर इस स्टेशन पर लाना क्यूंकि यही तो रास्ता है तुम्हारी शिर्डी तक पहुँचने का। मनमाड ने देखा है कैसे यहाँ से गुजरने वाली गाडियों से लोग उतरते हैं और स्टेशन के प्लेटफार्म को छूकर बाबा से आशीर्वाद मांगते हैं की अगली बार हमारी यात्रा बस यहीं तक हो। मनमाड स्टेशन, जो 108 साल बाद अब लगभग खाली रहा करेगा। जिस मनमाड स्टेशन पर उतर कर लोग शिर्डी की यात्रा शुरू करते थे अब उसी मनमाड पर गाड़ी रुकने को वक़्त की बर्बादी कहा करेंगे। मनमाड स्थान साईं लीला में सदा के लिए अमर हो जायेगा मगर शायद साईं भक्त इस स्टेशन को अब भूल जायेंगे।
प्यारे मनमाड, मैं तुम्हे हमेशा याद रखूँगा और दुआ करूँगा की मनमाड की जो गरिमा और आवश्यकता आज तक रही है वो सदा साईं भक्तो के मन में ताज़ा रहे। जिस तरह शिर्डी में खंडोबा मन्दिर, शनि-हनुमान-शिव मन्दिर, चावडी, द्वारकामाई, और लेंडी बाग़ बाबा की लीला में अमर हैं मनमाड रेलवे स्टेशन भी उसी तरह साईंलीला का एक अमर हिस्सा बन गया है। -जय साईं
समाचार : २८ फरवरी २००९ को श्री साईं भक्तो की सुविधा के लिए रेलमंत्री लालू प्रसाद यादव ने 'साईंनगर शिर्डी' नाम के इस स्टेशन का शुभारम्भ किया और शिर्डी - मुंबई पहली रेल को झंडी दिखाकर रवाना किया। शिर्डी स्टेशन का उद्घाटन करने से पहले श्री यादव ने समाधि मन्दिर में बाबा के आगे पूजा की और आगामी चुनावों के लिए आशीर्वाद माँगा। सभी साईं प्रेमी भक्तो के लिए ये तस्वीर प्रस्तुत है।
Friday, February 13, 2009
हैप्पी वैलेंटाइनस डे
श्रीसाईं सच्चरित्र में बाबा ने कई स्थानों पर सत्यापित किया है की सभी संत आपस में भाई का रिश्ता रखते हैं। संत रामकृष्ण परमहंस के देहावसान के दिन तो बाबा ने बहत्तर घंटे के लिए अपने प्राण ब्रहम्मांड में चढ़ा लिए थे। आपको भी आश्चर्य हो रहा होगा की आख़िर आज मैं संतो के इस रिश्ते की बात कर क्यूँ रहा हूँ?
मित्रो जैसा की आपको मालूम है की कल 'वेलेंटाइनस डे' है। संत वैलेंटाइन का कोई भी अकाट्य प्रमाण न तो रोम के पास है, जहाँ के वो समझे जाते हैं और ना ही कहीं और इस बात का सबूत है की संत वैलेंटाइन नामक संत कभी हुआ है। मगर विश्व में ऐसे कई त्यौहार और पर्व हैं जिन्हें मानव की भलाई और विभिन्न समाजो में फैले झगडो को दूर करने वाले महान लोगो से जोड़ा गया है। संत वैलेंटाइन को भी नफरत और परस्पर वैमनस्य को दूर करके प्रेम का भाव पैदा करने वाले एक संत के रूप में जाना गया है।
'वैलेंटाइनस डे' जाना जाता है प्यार के लिए। जिस तरह 'होली' का त्यौहार प्रेम और एकता को बढ़ावा देने वाला पर्व है उसी प्रकार 'वैलेंटाइनस डे' भी प्यार और मुहब्बत को याद करने का पर्व है। 'वैलेंटाइनस डे' किसी भी तरह से 'वासना' से जुडा हुआ त्यौहार नहीं है. संत वैलेंटाइन ने कभी भी अपनी पत्नी या किसी महिला मित्र को लाल गुलाब का फूल देकर प्यार का इज़हार किया हो ऐसा कहीं नहीं आता. 'संत वैलेंटाइन' के जो भी किस्से और कहानिया प्रचलित हैं उसके अनुसार संत वैलेंटाइन ने समूची मानव जाती के लिए प्रेम का इज़हार किया था. आज भी जो लोग जानते हैं वो मानते हैं की 'वैलेंटाइनस डे' अपने सभी झगडे और नफरते भूल कर प्रेम और विश्वास बढ़ाने वाला त्यौहार है. मेरा विचार है की जब दो संस्कृतिया मिलती हैं तब एक संस्कृति समाप्त नहीं होती बल्कि उनके मेल से उन दोनों ही संस्कृतियों के संबंधो में प्रगाढ़ता आती है. वास्तव में मानव ने अपने जैसे लोगो को साथ जोड़कर एक संस्कृति का निर्माण किया ही इसलिए था की वो और ज़्यादा समृद्ध हो सकें.
मेरे विचार से 'वैलेंटाइनस डे' को भी आपसी प्रेम और विश्वास को बढ़ाने वाला पर्व मानते हुए, उन सभी लोगो को जो आपसे द्वेष और नफरत रखते हैं, गुलाब का फूल देकर 'हैप्पी वैलेंटाइनस डे' कहना चाहिए. वैसे भी आजकल हमारे पास इतना वक्त ही नहीं है की हम अपने मित्रो और साथियो से प्यार का इज़हार कर सकें इसलिए हमें भी 'वैलेंटाइनस डे' जैसे पर्व की नितांत आवश्यकता है. जहाँ तक श्रीसाईं का विचार करें तो बाबा ने भी हमें प्यार और आपसी भाईचारे का संदेश दिया है. बाबा का हमारे लिए प्यार भी संत वैलेंटाइन के जैसा ही है जो वक्त के साथ-साथ बढ़ता ही जा रहा है. बाबा को अपने मन में स्थान देते हुए वैलेंटाइनस डे के पर्व पर मैं श्रीसाईंनाथ महाराज को अपनी तरफ़ से 'हैप्पी वैलेंटाइनस डे' कहता हूँ आप अपनी तरफ़ से ख़ुद कहिये. -जे साईंराम
Sunday, February 8, 2009
क्या है सबका मालिक एक॑?
बाबा ने बहुत सहजता से कहा है कि सबका मालिक एक। ऐसा कह पाना शायद बाबा के लिए ही सम्भव था क्योंकि समस्त आसक्तियों और अनुरागों से मुक्त एक संत ही ऐसा कह सकता है। प्रचलित धर्म चाहे वो हिन्दु धर्म हो, इस्लाम हो, सिख हो, ईसाई हो, जैन हो, बौद्ध हो या कोई अन्य, प्रश्न ये है कि जो ये धर्म सिखा रहे हैं क्या वो गलत है॑ क्योंकि अगर गलत ना होता तो बाबा को इस धरती पर अवतार लेने की आवश्यकता ही ना होती। हमारे ये सभी प्रचलित धर्म इतने कट्टर क्यों हैं कि अगर एक हिन्दु किसी मुसलमान के साथ बैठता है या उसका छुआ खाता-पीता है तो उसका कथित धर्म भ्रष्ट हो जाता है॑ वैसे आप ही सोचिए वो धर्म ही क्या जो छूने या खानेॅपीने से भ्रष्ट हो जाए। वास्तव में धर्म जो बताते हैं वो है शिक्षा। एक कथा के अनुसार परमात्मा ने देवों, दानवों और मानवों के जीवन की पहली सीख के रूप में केवल एक अक्षर कहा था 'दा' इसका अर्थ देवों के लिए था कि उन्हें अपने - भोगो और आसक्तियों का दमन करना चाहिए। दानवों के लिए शिक्षा थी कि उन्हें दया करनी चाहिए और मानव जाति को कहा कि उन्हें दान करना चाहिए। बाबा ने कलयुग में एक बार फिर धरती पर आकर हमें इसी शिक्षा की याद दिलाई।
प्रचलित धर्म भी इन तीनों शिक्षाओं पर अमल करने को कहते हैं। सभी धर्मों के अनुसार हमें अपनी आसक्तियों और भोगो का दमन करना चाहिए क्योंकि सभी परेशानियां और तकलीफें आसक्ति से आरंभ होती हैं। इस्लाम में किसी भी प्रकार से ब्याज लेना मना है। जो आसक्ति को दूर करता है। कुरान शरीफ के अनुसार जो मुसलमान अपने पडोसी को भूखा जानकर भी अपना पेट भर लेता है वो अल्लाह की राह में सबसे बडा गुनहगार है यानि अपने आसॅपास के सभी जीवों पर दया का भाव रखना एक सच्चा मुसलमान बनने की कुछ जरूरी शर्तों में से एक है। इसी तरह ईद के पवित्र मौके पर फितरा और जकात का लाजिम होना इस्लाम की दान की शिक्षा का एक रूप है।
श्रीसाँई सच्चरित्र अध्याय २५ में वर्णन है कि श्रीसाँई ने दामू अण्णा कसार की रूई और अनाज के सौदे में धनलाभ की आसक्ति को दूर किया। इसी प्रकार दूसरी शिक्षा है दया। "बाबा की शिक्षा है कि भक्त जो दूसरों को पीडा पहुंचाता है, वह मेरे हृदय को दु:ख पहुंचाता है तथा मुझे कष्ट पहुंचाता है। -श्रीसाँई सच्चरित्र अध्याय ४४" अर्थात हमें प्रत्येक प्राणी पर दया करनी चाहिए। और तीसरी शिक्षा है दान जिसका हेमाडपंतजी ने श्रीसाँई सच्चरित्र के अध्याय १४ में दक्षिणा का मर्म के रूप में वर्णन किया है।
बाबा ने रामनवमी और उर्स एक साथ मनाए क्योंकि बाबा सिखाना चाहते थे कि सभी धर्म एक ही शिक्षा दे रहे हैं। इसीलिए बाबा सदा कहा करते थे कि सबका मालिक एक। ये मालिक ही वो नूर है। वो शिक्षा है जो हमें हमारे जन्म लेने का कारण बताती है। अव्वल अल्लाह नूर उपाया कुदरत के सब बंदे। एक नूर से सब जग उपजया कौन भले कौन मंदे। साँई अपनी कृपा सब पर बनाए रखें यही कामना है।
Sunday, February 1, 2009
बस बेल बजाइए
जय साईंराम, आजकल मैंने एक इश्तेहार देखा है टीवी पर 'घरेलु हिंसा को रोकिये, बस बेल बजाइए'। देखते हुए विचार आया की आख़िर मुसलमानों की मस्जिद में, गुरद्वारो में, गिरजाघरों में हिंदू मंदिरों को तरह बड़े-बड़े घंटे क्यूँ नहीं होते? इसी के साथ मुझे श्रीसाई सत्चरित्र में एक कहानी याद आई की बाबा ने किस प्रकार शिर्डीवालो को समझाया था की रोहिल्ला जो ज़ोर-ज़ोर से इबादत कर रहा है उसकी वजह उसका अन्तःकरण है।
बाबा ने बहुत ही साधारण लीला द्वारा भक्तो को संकेत दिया था की अपने मन को मालिक की याद में स्थित करो। हिंदू मंदिरों में घंटे और शंख की आवाज़, सिख मज़हब में 'बोले सो निहाल' का हुंकार, और इस्लाम में अजान की आवाज़ बताती है हमें अपने चित्त को एक आवाज़ के द्बारा केंद्रित करना चाहिए। किसी भी पीर फकीर के मुरीद ज़ोर-ज़ोर से उनकी जयजयकार करते हैं वो हमारे शरीर को एक ध्वनि में पिरोनेके लिए है।
कहीं दूर बात करने के लिए हमे जिस प्रकार फोन की बेल बजानी पड़ती है वैसे ही अपने सदगुरु में अपना ध्यान लगाने के लिए हमे हमे उसके नाम का हुंकारा भरना पड़ता है या घंटे बजाने पड़ते हैं। इसी विज्ञापन में वो कहते हैं की 'बेल बजाइए और उन्हें बताइये की आपको पता है'। भाव ये है की आपके गुरु को आपके नाम लेने भर से मालूम हो जाए की आप जाने हैं की वो कितना कारसाज़ है और आपको उस पर पूरा भरोसा है। तो अगर अगली बार आपको साईं की, अपने गुरु की याद आए तो हिचाकिये मत बस साईं राम के नाम का जाप कीजिये और अपने मन में स्थित उस बाबा की बेल बजाइए। जय साईं राम -अमित माथुर
Saturday, January 31, 2009
क्या है प्याज और बाबा का सम्बन्ध?
वास्तव में श्रीसाई से जुड़ने के बाद पहला विचार मन में यही आता है की भोजन में किस प्रकार की चीजे खाई जाए और कौन से नहीं। बाबा से जुड़ने के बाद सबसे पहले भगतजन मांसाहार त्याग देते हैं। मांस खाना चाहिए इसकी वकालत और समर्थन मैं कहीं भी नहीं कर रहा हूँ। बस विचार ये है की खाने-पीने के सम्बन्ध में बाबा का क्या कहना है। एक योगाभ्यासी जो नाना साहेब चांदोरकर के साथ शिर्डी आया था समाधि में ध्यान नहीं लगा पा रहा था। बाबा को प्याज और रोटी खाते हुए उसने देखा तो उसके मन में विचार आया की प्याज और रोटी खाने वाला ये इंसान मुझे क्या देगा? इसी पर बाबा ने नाना साहेब चांदोरकर से कहा की "प्याज उसी को खानी चाहिए जो उसे हज़म कर सके"।
प्याज को वैदिक धर्म में ना खाए जाने योग्य भोज्य पदार्थ बताया गया है। प्याज और लहसुन में गंध के कारण शायद ऐसा किया गया है। बाबा ने प्याज के सम्बन्ध में दूसरा उपदेश तब दिया था जब कुशा भाऊ जो विख्यात और शक्तिशाली तंत्रज्ञ थे बाबा के साथ बैठे थे। वो एकादशी का दिन था और बाबा ने सामने पड़ी प्याज, कुशा भाऊ से खाने को कहा। कुशा भाऊ, जो बाबा के चरणों में आकर तंत्र-मन्त्र आदि सारे वाम मार्गी शक्तिया छोड़ चुके थे, बाबा के कहने मात्र पर प्याज खाने को तैयार हो गए. एक ब्रह्मण के लिए एकादशी के दिन प्याज खाने जैसा पाप 'घोर पाप' की संज्ञा में आता है. कुशा भाऊ ने कहा बाबा मैं तो तब प्याज खाऊँगा जब तुम भी प्याज खाओगे. बाबा ने भी वहां रखी प्याज खाई और कुशा भाऊ ने भी. तब बाबा अचानक ज़ोर से चिल्ला कर बोले "अरे देखो ये बामन एकादशी के दिन प्याज खा रहा है." कुशा भाऊ ने कहा "बाबा प्याज तो आपने भी खाई है." तब बाबा मज़ाक करते हुए बोले "नहीं मैंने तो शकरकंदी खाई है" इस पर कुशा भाऊ ने कहा "नहीं आपने अभी प्याज खाई है". तब बाबा ने फौरन उलटी कर दी और प्याज की जगह शकरकंदी बाहर आई. कुशा भाऊ ने बिना देर किए वो सारी शकरकन्दी खा ली इस पर बाबा ने कहा "अरे अरे ये क्या कर रहा है, मेरी उल्टी क्यूँ खा रहा है?" इस पर कुशा भाऊ ने कहा "बाबा यही तो तुम्हारा असली प्रसाद है". कुशा भाऊ की इस लगन और श्रद्धा के प्रतिफल में बाबा ने उन्हें आशीर्वाद दिया की वो जहाँ भी बाबा ध्यान करके अपनी मुट्ठी बंद करेंगे 'धूनी' की गर्म-गर्म ऊदी उनके हाथ में आ जायेगी और उस से वो लोगो का भला कर सकेंगे. ये कथा श्रीसाईं सत्चरित्र में वर्णित है।
बाबा ने प्याज खाकर यही बताया है की हमे अपनी इन्द्रियों पर इतना नियंत्रण होना चाहिए की खाने-पीने या आस पास के माहोल का हमारे चरित्र पर असर ना पड़े. ये बड़ी विलक्षण बात है की दुनिया के इतिहास का सबसे बड़ा दुष्ट माना जाने वाला व्यक्ति हिटलर शाकाहारी था. यहाँ मैं फिर बता दूँ की मेरा मकसद ये कतई नहीं है की हमे मांसाहार करना चाहिए. मेरा निवेदन सिर्फ़ ये है की बाबा और प्याज के रिश्ते को समझकर हम बाबा से प्रार्थना करें की वो हमे भी इतनी शक्ति दें की हम प्याज रुपी बुरी भावनाओं और अनाचारी मस्तिष्क को हज़म कर लें अर्थात हमारे चरित्र पर बाहरी दुःशक्तियों का प्रभाव ना हो और प्याज रुपी ये गन्दगी, शकरकंदी के समान स्वादिष्ट भावना में बदल जाए. जय साईं राम -आपका मुकुल नाग, 'साईबाबा' शूटिंग स्टूडियो, वडोदरा, गुजरात.
Thursday, January 29, 2009
मुकुल नाग जी और साईं संदेश प्रचार
इसी धारावाहिक में साईंबाबा के पवित्र चरित्र को प्रस्तुत करने का कार्य राष्ट्रिय नाट्य विद्यालय के छात्र रहे श्री मुकुल नाग को सौपा गया। धारावाहिक से अप्रसन्न लोगो ने सोचा होगा की बाबा के रूप में तो आज तक सुधीर दलवी जी के अतिरिक्त साईं भक्तो को कोई पसंद ही नहीं आया, तो अब ये अभिनेता क्या ख़ास कर लेगा? मगर जैसे ही धारावाहिक का प्रसारण शुरू हुआ मुकुलजी धीरे-धीरे साईं भक्तो के मन में अपनी जगह बनाने लगे। इतना ही नहीं श्रीसाईं के रूप में उन्हें दुनिया भर के साईं भक्तो का अपार प्रेम प्राप्त हुआ। मुकुलजी का ऑरकुट पेज, यूंट्यूब पर उनके धारावाहिक के विडियो इस बात के गवाह हैं की उन्हें सारी दुनिया से साईं भक्तो का आशीर्वाद मिल रहा है।
धारावाहिक के अतिरिक्त कुरीतियों और बुराइयों से समाज के परेशान लोगो में श्रीसाईं संदेश का प्रचार करने के लिए मुकुलजी ने श्रीसाईं स्वरुप में मंच पर 'श्रीसाईं संदेश प्रचार' का कार्यक्रम आरम्भ किया। श्रीसाईं के स्वाभाविक भावो और स्वरुप के सबके सामने रखते हुए बाबा के दिव्य संदेशो का प्रचार करना एक अत्यन्त प्रभावी और कारगर उपाय साबित हो रहा है। पिछले वर्ष श्रीसाईं की लीलास्थली शिर्डी गाव से मुकुलजी ने अपने ही निर्देशन में तैयार तीन घंटे के सम्पूर्ण नाटक 'सबका मालिक एक है' का मंचन, श्री साईंबाबा संस्थान ट्रस्ट के सहयोग से किया। इसके बाद इस ध्वनि एवं प्रकाश नाटक 'सबका मालिक एक है' का मंचन भारत के विभिन्न स्थानों पर हो चुका है।
श्रीसाईं कार्य में श्री मुकुल नाग जी के समस्त प्रयासों में आप सभी भक्तजनों एवं साईंप्रेमियो का आशीर्वाद प्राप्त हो यही कामना है। -रिपोर्ट: अमित माथुर
साईं शक्ति से साईं कार्य में
जिस तरह बाबा के सभी भक्त एक जैसे नहीं हो सकते वैसे ही साईं समाज के सब सदस्य भी एक समान नहीं हो सकते। बाबा के इस समाज का सदस्य बनने के बाद जब कुछ साईं भक्तो को साईं संदेश के उलट काम करते हुए देखते हैं तो मन बहुत अशांत हो जाता है। साईं समाज में रहने और साईं भक्तो से जुड़ने में भी कष्ट का अनुभव होने लगता है। ऐसे बहुत से तथाकथित साईं भक्त मिलते हैं जो ख़ुद को बाबा का सबसे प्रिये मानते हैं और सिर्फ़ बाबा के नाम से जुड़ कर अपना स्वार्थ सिद्ध करना चाहते हैं। ऐसे बहुत से भक्त मिलते हैं जो "बाबा का नेक काम है" कह कर अपनी अहंकारी और सांसारिक इच्छाओ को पूरा करना चाहते हैं।
श्रीनरसिंह स्वामी जी लिखते हैं की "जब मैंने बाबा के भक्तो का असली अनुभव एकत्र करना प्रारंभ किया तो मुझे ऐसे बहुत से लोग मिले जो अपने और बाबा के संबंधो का झूठा जाल बुने बैठे थे। मगर बाबा ने स्वयं ही मुझे विवेक दिया और मैं सही अनुभवों का संकलन करने में सफल हुआ" इसका अर्थ तो यही हुआ की साधारण समाज की तरह ही साईं समाज में भी अच्छे और बुरे दोनों प्रकार के साईं भक्त मोजूद हैं। बाबा की अन्तः प्रेरणा और साईं स्मरण से ही इन साईं भक्तो से मुक्ति पाई जा सकती है।
सबसे पहले तो साईं के कार्यो का सारा श्रेय श्रीसाई को ही देना चाहिए। अगर किसी भी कार्य को करते हुए 'मैं' की भावना मन में आ गई तो समझिये दूध उबलने से पहले ही उसमे बिल्ली मुहं मार गई, अर्थात कार्य के आरम्भ होने से पहले ही उस कार्य का सत्यानाश हो गया। इस विशाल संसार में करने वाला भी साईं है और कराने वाला भी साईं ही है। हमे यही विचार करना चाहिए की हमारे सारे जीवन का एक मात्र ध्येय है 'साईं शक्ति से साईं कार्य में'।
Wednesday, January 28, 2009
नॉएडा में साईं आस ने रचा दान का इतिहास
श्रीसाईं की कृपा भी अनूठी है। श्रीसाईं सत्चरित्र में गोविन्द रघुनाथ दाभोलकर जी ने एक पूरा अध्याय दक्षिणा के मर्म को समझाते हुए लिखा है। बाबा का दक्षिणा लेने का ढंग भी बाबा की अन्य लीलाओ की तरह अनूठा था। किसी-किसी धनवान से तो वो एक पैसा दक्षिणा भी नहीं लेते थे और किसी-किसी से वो उधार लेकर दक्षिणा देने को भी कहते थे। लीला का सार केवल यही है की दक्षिणा देने वाले या लेने वाले को कभी भी नुक्सान नहीं हुआ।
साईं आस संस्था अपने वार्षिक उत्सव के अवसर पर दान को विशेष महत्त्व देती है। पिछले कुछ वर्षो से साईं आस दुर्बल आय वर्ग के बच्चो को निशुल्क पुस्तके और चिकित्सा उपलब्ध करवाने के अतिरिक्त बाबा के ज़रूरतमंद बच्चो को सिलाई मशीन और चल पाने में असमर्थ लोगो को साइकिल का वितरण कर रही है। इस वर्ष साईं आस के तीसरे वार्षिक उत्सव के अवसर पर साईं आस संस्था से जुड़े धर्मार्थी साईं भक्तो ने चौदह साइकिल और एक सिलाई मशीन का दान किया। इस अवसर पर साईबाबा धारावाहिक के मुख्य अभिनेता श्री मुकुल नाग ने कहा "दान का महत्त्व तो वैसे भी बहुत है और बाबा के श्रीमुख से दान की महिमा जानने के बाद तो लगता है की जीवन का मूल मन्त्र ही दान को बना लेना चाहिए"। इस अवसर पर साईं आस प्रमुख श्री अलोक मिश्रा ने सभी उपस्थित साईं भक्तो, साईं आस के सहयोगियों और श्री मुकुल नाग को धन्यवाद दिया और बाबा से प्रार्थना की के आने वाले समय में साईं आस संस्था को और शक्ति दें की वो बाबा के चरणों में और धार्मिक कार्य कर सकें। -रिपोर्ट: अमित माथुर, गाजियाबाद (saiamit@in.com)